Thursday, December 31, 2009

नववर्ष मंगलमय हो



एक सुबह तो ऐसी हो जब
सूरज सचमुच चमके,

धूप सुनहरी रँग दे कण-कण
मेरे घर आँगन के...

आप सभी को नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ.

Wednesday, December 30, 2009

स्पेलिंग-मिस्टेक





अहसास के डिक्टेशन में

फ़ेल किया गया उसे

तृप्ति की स्पेलिंग

ग़लत लिखने के कारण.


ग़लती उसकी नहीं

उसकी टीचर की थी--

ज़िन्दगी की वर्क-बुक में

प्रैक्टिस करवाई गई थी उसे

भूख लिखने की लगातार.

Wednesday, December 23, 2009

क्या पंकज सुबीर जी मदद करेंगे मेरी ?






शायद पढने वालों को इस पोस्ट का शीर्षक अजीब लगे पर सच यही है कि मुश्किल की इस घड़ी में मुझे पंकज सुबीर जी की मदद की दरकार है और मदद मिलने का पूरा भरोसा भी है.

बात दरअसल यह है कि आजकल मैं राष्ट्रीय एकता पर आधारित एक रेडियो डॉक्यूमेंटरी के निर्माण कार्य में लगी हुई हूँ जिसका शीर्षक है "हर धड़कन वतन के लिए." आज के समय में जब हर तरफ़ धार्मिक वैमनस्यता फैली हुई है और तुच्छ निजी स्वार्थ देश हित से बड़े लगने लगे हैं, जब धार्मिक कट्टरता का ज़हर देश की एकता और अखण्डता के लिए खतरा बनता जा रहा है,आरोप-प्रत्यारोपों के बीच जब सहिष्णुता एक मज़ाक सी लगने लगी है,जब संकीर्णता इतनी बढ़्ती जा रही है कि देश का सम्मान और देश की छवि भी दाँव पर लगने लगी है ऐसे में पूर्वांचल के कुछ मदरसे राष्ट्रवादी शिक्षा के दीपक से धार्मिक कलुषता के इस अन्धेरे को दूर भगाने का महान कार्य कर रहे हैं. इन मदरसों में मुस्लिम बच्चों के साथ हिन्दू बच्चे भी शिक्षा ग्रहण करते हैं. यहाँ अरबी,उर्दू के साथ सँस्कृत और हिन्दी भी पढाई जाती है. एक ओर क़ुरआन की आयतें तो दूसरी ओर सरस्वती वन्दना और गायत्री मंत्र भी पढाए जाते हैं.यही नहीं यहाँ पर अँग्रेज़ी, कम्प्यूटर और विज्ञान विषयों की शिक्षा भी दी जाती है.यह पूछने पर कि इस सबका उद्देश्य क्या है, जवाब मिलता है कि जब हिन्दुस्तान में जन्म लिया है तो यहाँ की हर चीज़ हमारी अपनी है और इस नाते हर धर्म और सँस्कृति को जानना और इज़्ज़त देना हमारा धर्म और कर्तव्य है.कुछ लोगों ने कहा हम भारत माँ के लाल हैं और अपनी माँ की इज़्ज़त करना तो हमारा फर्ज़ है. लोगों ने यहाँ तक कहा कि "हमारी हर धड़कन वतन के लिए है." उनकी इस बात से मैं इतना प्रभावित हुई कि मैने डॉक्यूमेंटरी का शीर्षक ही रख दिया "हर धड़कन वतन के लिए ."

लखनऊ से तीन सौ किमी दूर इन इंटीरियर विलेजेज़ में जाकर रिकार्डिंग का काम पूरा हो चुका है और फिलहाल वॉर फ़ुटिंग पर एडिटिंग चल रही है. कार्यक्रम सबमिट करने की अंतिम तारीख 28 दिसम्बर है.अब बात आती है उस बिन्दु की जहाँ मैं मुश्किल महसूस कर रही हूँ. अपने इस कार्यक्रम के क्लामेक्स बिन्दु पर मैं एक ग़ज़ल/नज़्म/शेर को संगीतबद्ध करके जोड़ना चाहती हूँ जिसमें मिसरा आए "हर धड़कन वतन के लिए." मुझे ऐसा कोई शेर फ़िलहाल ढूँढने से भी नही मिल पा रहा है.मैं काफ़ी परेशान थी ऐसे में मुझे याद आई पंकज सुबीर जी की जो कि प्रख्यात ऑनलाइन ग़ज़ल गुरू हैं और ब्लॉग जगत का लगभग हर अगला शायर उनका शिष्य है. मुझे लगा कि इस टीम से यदि मैं आग्रह करूँ तो मेरा काम यक़ीनन बहुत आसान हो जाएगा. अरे भई जहाँ पर गौतम राजर्षि, कंचन, श्यामल सुमन जैसे योग्य नामों की सूची शिष्य लिस्ट में हो वहाँ एक अच्छी ग़ज़ल/नज़्म् का जुगाड़ शॉर्ट नोटिस पर हो जाना कोई बड़ी बात तो नही है! यही सोच कर मैने यह पोस्ट लिखी है. इसे एक ओपन रिक्वेस्ट माना जा सकता है.जो लोग भी इस विषय पर लिख कर मेरी सहायता करना चाहें वे टिप्पणी के रूप में इसे भेज सकते हैं. बस इतना याद रहे कि अंतिम तिथि 28 दिसम्बर है.

पंकज जी देश के प्रति सम्मान के इस जज़्बे को लाखों लोगों तक पहुँचाने में आप और आपके शिष्यगण क्या मेरी मदद करेंगे? पंकज जी के नाम लिखी गई मेरी यह रिक्वेस्ट पोस्ट पंकज सुबीर जी के अलावा उन सभी मित्रों के लिए भी है जो ग़ज़ल/नज़्म् लिखने में रूचि रखते हैं. हाँ इतना विश्वास रखिए कि सर्वोत्तम ग़ज़ल को आकर्षक रूप से संगीतबद्ध करवाने की ज़िम्मेदारी मेरी है.


"हर धड़कन वतन के लिए" मिसरे पर आपकी ग़ज़लो और नज़्मों के इंतज़ार में,


मीनू खरे

Monday, December 21, 2009

इन्सिग्नीफिकेंट




दोस्ती
इन्सिग्नीफिकेंट

दोस्त
इन्सिग्नीफिकेंट

मौक़े
सिग्नीफिकेंट

परिणाम
सिग्नीफिकेंट.

Saturday, December 12, 2009

क्रेश



यह जानते हुए भी
कि
उसे मारपीट कर
जबरन सुला दिया जाता है वहाँ
मैं छोड़ जाती हूँ
अपनी सम्वेदनाओं के अबोध शिशु को
तर्कशक्ति के नज़दीकी क्रेश में.
क्या करूँ ?
यथार्थ के ऑफ़िस में ले जाने पर
काम ही नही करने देता
यह नन्हा
यह नादान.

Sunday, December 06, 2009

कूड़ा बीनने वाले बच्चों का अपना बैंक



बनारस,६ दिसंबर. देश में जब कोई विजय दिवस मन रहा था और कोई शर्म दिवस ऐसे में बनारस के कूड़ा बीनने वाले बच्चों सहित तमाम गरीब बच्चे अपने द्वारा खोले गए चिल्ड्रेन्स बैंक के द्वारा देशवासियों का ध्यान देश की सबसे बड़ी समस्या गरीबी और उसके उन्मूलन के लिए आर्थिक सशक्तीकरण् की आवश्यकता की ओर आकर्षित करने में लगे हुए थे .मंदिर और मस्जिद के नाम पर बटवारे को नकारते यह बच्चे अपने बैंक द्वारा देश को आर्थिक ताक़त बनाने में मशगूल दिखाई दिए. विशाल भारत संसथान के तत्वावधान में बना बच्चों का यह बैंक अपनी किस्म का पहला है .इसका संचालन 5-13 वर्ष के बच्चे ही करते हैं.इस बैंक में मात्र 50 पैसे से खाता खोला जा सकता है ,इसके लिए एक फॉर्म भरना पड़ता है साथ ही एक गारंटर की ज़रुरत पड़ती है.बाल श्रमिक अपनी कमाई से प्रतिदिन 1-10 रूपए बैंक में जमा करते हैं.ज़रूरत पड़ने पर यह बच्चे इस बैंक से ब्याज रहित लोन भी ले सकते हैं.इस बैंक के कारण कई गरीब बच्चे अपनी पढ़ी जारी रख पा रहे हैं और बाल श्रमिकों में बचत की भावना का भी विकास हो रहा है. इस बैंक की मैनेजर 11 वर्षीय निशा है तो 8 वर्षीय आफरीन केशियर् का काम करती हैं वाही 6 वर्षीय तौहीद आलम बैंक के सुरक्षा अधिकारी हैं. आज इस बैंक का उद्घाटन बैंक ऑफ़ बड़ोदा के प्रबंधक श्री घनश्याम दास् ने किया. इस मौके पर संस्थान के अध्यक्ष राजीव श्रीवास्तव ने बताया की जल्द ही बैंक की २० अन्य शाखाएं खोली जाएगी.लगता है वह दिन दूर नहीं जब गरीब बच्चे अपनी बचत द्वारा देश को आर्थिक ताकत बनाने में बराबर के भागीदार होंगे. हमारी तरफ से इस पहल पर इन सभी बच्चों को बधाई और शुभकामनाएं.

Friday, December 04, 2009

एक लेटलतीफ़ की शादी



वो मुझे 'मैम' कहकर सम्बोधित करता है क्यों कि ऑफिस में मैं उसकी बॉस हूँ और इस लिए भी क्यों कि वो मेरा शिष्य है.मैं उसे 'लेटलतीफ़' कहती हूँ, क्यों? अरे भई नाम से ही ज़ाहिर है कि वो हमेशा लेट आता है .किसी एक दिन, किसी एक मौक़े, किसी एक जगह पर नहीं, हर दिन हर मौक़े और हर जगह, हर कार्यक्रम में वो लेट आता है.कभी 15मिनट लेट तो कभी 45मिनट, कभी 1 घंटा लेट, कभी 2 घंटा और कभी कभी तो सुबह की जगह शाम को पहुँचता है.आपका काम रूके तो रूके पर उस बेचारे को समय से न पहुँचने की जैसे क़सम है.कई बार आकाशवाणी स्टूडियो में किसी वीआईपी रिकार्डिंग में, मेरे बार बार रिमाइंडर के बावजूद भी वो तब पहुँचा जब रिकार्डिंग समाप्त होने वाली थी!!! अब चाहे आप अपने बाल नोचें, चाहे हज़ार बातें सुनाएँ, चाहे जो सज़ा देने की बात कहें, वो एक चुप तो हज़ार चुप. आखिर में थक हार कर अगले को ही चुप होना पड़ता है. हर बार 'अब से हमेशा समय से आऊँगा' का वायदा पर ......??!!!ज़्यादा पूछो तो कहेगा "मैम मैं देर नही करता, पता नहीं कैसे देर अपने आप हो जाती है." वो बहुत अच्छा वर्कर है, विश्वसनीय है, मेहनती है, जानकार है और सबसे बड़ी बात कि इस सबके बावजूद बहुत विनम्र और आज्ञाकारी भी है.शायद यही कारण है कि अपनी हैरान कर देने वाली लेटलतीफ़ी के बावजूद भी वो मेरे हर महत्वपूर्ण प्रोजेक्ट में मेरी टीम में ज़रूर रहता है.

पिछले दिनों उसने मुझे अपनी शादी का कार्ड दिया. बारात 27 नवम्बर को लखनऊ से कानपुर जानी थी.उसका आग्रह था कि मैम शादी में आपको ज़रूर ज़रूर आना है.ऑफिस के अन्य सहकर्मी भी सादर आमंत्रित थे.अपने प्रिय शिष्य़ की शादी में शामिल होने का मेरा खुद बहुत मन था. मन में उसे दूल्हा बना देखने की बड़ी उमंग थी.उसने बताया कि "मैम चूँकि शादी में बैण्ड पहली शिफ़्ट का है अत: कैसे भी करके बारात कानपुर 6:30 शाम तक ज़रूर पहुँचनी है वर्ना बैण्ड वाले वापस चले जाएँगे." समय से पहुँचने की उसकी एक दो रिमाइंडर कॉल भी मुझे प्राप्त हुई.बारात पौने पाँच बजे शाम को रवाना हुई.एक बस थी और तीन गाड़ियाँ. एक गाड़ी में दूल्हा और कुछ परिवारजन थे. अन्य गाड़ियों में हम ऑफ़िस वाले थे.वो बार बार फोन से हम लोगों से सम्पर्क बनाए था कि कौन सी गाड़ी कहाँ तक पहुँची.उन्नाव पहुँच कर एक ढाबे पर हम लोगों ने चाय पीने की सोची. हम लोगों ने उससे कह दिया कि तुम चलो हम लोग पहुँच जाएँगे.करीब आधे घंटे उन्नाव में बिता कर हम लोग फिर चल पड़े.पर यह क्या! कानपुर से करीब पाँच किमी पहले हमारी गाड़ी एक भयँकर जाम में फँस गई. हमें लगा कि चाय पीने के चक्कर में हमसे बहुत बड़ी ग़ल्ती हो गई है. अब पता नही बारात मे समय से पहुँच पाएँगे कि नहीं. तभी हमने देखा कि बारात वाली बस तो हमारे बग़ल में ही खड़ी है! अब हमने सोचा कि यह अच्छा है कि बारातीगण तो जाम में फँसे है क्या दूल्हा राजा अकेले ही बैण्ड बाजा लेकर निकलेंगे? तभी उनका फोन आता है "मैम मेरी गाड़ी आप से पीछे खड़ी है."इस समय कोई आठ बज रहे थे. दूल्हा समेत पूरी बारात इस जाम से कैसे निकलेगी ? चार पाँच किमी के जाम का यह सफ़र बहुत मुश्किल था. हर आदमी के मन में एक ही प्रश्न की लखनऊ से कानपुर का आमतौर पर दो घंटे में खत्म होने वाला सफ़र आज कितने घंटे लेगा? सड़क पर तिल रखने की जगह नही थी.तभी मेरी लाइन की एक गाड़ी ने साइड वाले कच्चे रास्ते में मोड़ा हमारी गाड़ी भी उसके पीछे मोड़ी गई. आगे पता चला कि आज कानपुर में भारत-श्रीलंका क्रिकेट मैच था और सुरक्षा व्यवस्थाओं के चलते यह अभूतपूर्व जाम लगा था.फिलहाल हमें निकलने की जगह मिल चुकी थी और भले ही रेंग-रेंग कर ही सही पर मेरी गाड़ी रात बारह बजे शादी स्थल पर पहुँच चुकी थी.बाराती पहुँच चुके थे पर दूल्हा मिसिंग था. हमने फोन किया तो जवाब मिला "मैम अभी तो मुझे पहुँचने में बहुत वक़्त लग जाएगा, मेरी गाड़ी भयँकर जाम में अभी भी फँसी है,कहीं से भी निकलने की जगह नहीं मिल रही है." मैने सिर पकड़ लिया.आज भी लेट !!!! और हमेशा की भाँति मुझे बहुत इंतज़ार करना पड़ा.दूल्हा महाशय रात डेढ बजे शादी स्थल पर पहुँचे. बारात करीब दो बजे शुरू हुई और जयमाल की रस्म होते समय घड़ी ढ़ाई बजा रही थी.जयमाल के वक्त जब उसने स्टेज पर मेरे पैर छुए तो मुझे उसकी वही बात याद आ रही थी " "मैम मैं देर नही करता, पता नहीं कैसे देर अपने आप हो जाती है......."

खैर देर चाहे जितनी भी हुई हो पर शादी बहुत अच्छी हुई.मेरा शिष्य बहुत सजीला और सुन्दर लग रहा था. दुल्हन उससे भी बढ़ कर! शादी की रस्में अपनी गति से चल रही थी और मैं मन ही मन यह कामना कर रही थी कि जिस तरह का जाम आज हमारे रास्ते में लगा था उससे बहुत्-बहुत बड़ा जाम लग जाए,इस जोड़ी के जीवन में आने वाले किसी भी दुख-तकलीफ़ के रास्ते में.

ओम और श्वेता को स्नेहाशीष, आशीर्वाद और सुखमय जीवन की अशेष शुभकामनाएँ.

Monday, November 30, 2009

लव स्टोरी 2009

(वर्ल्ड एड्स डे पर विशेष)




लव-स्टोरी 2009 एक सच्ची प्रेम कथा है.किसी भी सामान्य फ़िल्मी कहानी से मिलती जुलती इस कहानी में भी एक लड़का है,एक लड़की है,फ़िल्में हैं, पार्क है, मोहब्बत की शुरुआत है,प्यार का इज़हार है,भविष्य के सपने हैं, रूठना-मनाना भी है और इस सबके बाद शादी नाम का सुखांत भी है,मगर फिर भी यह कहानी सब कहानियों से अलग हट कर है. क्यों? कैसे? अरे भाई इस कहानी में प्यार का अंकुर उस बिन्दु पर फूटता है जिसे प्राय: जीवन का अंत कहा जाता है.मगर इस अंकुर से उगा प्रेम वृक्ष जीवन के नए आयाम और मानदण्ड स्थापित करता है. एक वायरस के इर्द-गिर्द घूमने वाली यह कहानी है--हैदराबाद के राजशेखर और स्वपना के अनोखे प्रेम की. मगर इससे पहले एक नज़र स्वप्ना के जीवन के पिछले पन्नों पर.

अपने माँ-बाप की इकलौती संतान स्वप्ना ने जब पति का घर सदा के लिए छोड़ा तो उसकी गोद में एक बेटा था, शरीर के ऊपर पति की प्रताड़ना के सैकड़ों निशान और शरीर के अन्दर था HIV नामक वाएरस. जीवन भयावह प्रतीत हो रहा था, पति की बेवफाई आँखों से आँसू बन कर बह निकलती थी. अपने ऊपर रह 2 कर रोना आता था कि पति के ग़लत सम्बन्धों की सज़ा आखिर ईश्वर ने उसे क्यों दी? आत्महत्या के विचार उसे चारो ओर से घेर रहे थे पर अपने मासूम बच्चे की ममता उसे ऐसा करने से रोक देती थी.यह बच्चे की ममता की ही शक्ति थी जिसने वायरस को भी हरा दिया और स्वप्ना आगे बढ़ चली एक HIV काउंसिलर बन कर दूसरों को पॉज़िटिव जीवन की सलाह देने.अपने सेंटर पर वो लोगों को HIV से बचने के उपाय समझाती साथ ही यह भी बताती कि HIV+ होने का अर्थ जीवन का अंत नहीं. अपने सेंटर पर स्वप्ना ने HIV पॉज़िटिव लोगों का एक संगठन बनाया और सबने मिल कर एक सामूहिक शपथ ली " हम अपने शरीर में रह रहे HIV वाएरस को किसी और तक नही फैलने देंगे.इस वाएरस का अंत हमारे जीवन के साथ ही होगा और हम अपने जैसे पॉज़िटिव लोगों के लिए रोल मॉडल बनकर उनको केयर और सपोर्ट देकर एक नया जीवन देंगे." स्वप्ना जब यह शपथ ले रही थी उसे नही मालूम था कि यह शपथ उसके जीवन में वो रंग भर देगी जिसकी अब वो कल्पना भी नही कर सकती थी.

स्वप्ना एक दिन अपने चैम्बर में बैठी थी कि उसके पास राजशेखर नामका एक HIV पॉज़िटिव युवक आया जो अपने जीवन से हताश था.राजशेखर को एक ऑपरेशन के दौरान HIV हुआ था. स्वप्ना ने उसे भी वैसी ही सीख दी जो वो आमतौर पर ऐसे लोगों को दिया करती थी.राजशेखर किसी मुकदमें को लेकर बहुत परेशान था जहाँ पर एक काउंसिलर के रूप में स्वप्ना की गवाही की ज़रूरत थी.स्वप्ना ने राजशेखर की भरपूर सहायता की, उसके फेवर में गवाही भी दी. और उसी मुकदमे में जीत से ही शुरू हुई स्वप्ना और राजशेखर के जीवन की यह सच्ची प्रेम कहानी.राजशेखर ने कहा

"हम अगर शादी कर लें तो हमारा वायरस हम तक ही रहेगा..हम एक दूजे को केयर और सपोर्ट से नया जीवन दे सकते हैं..यही तो शपथ हमने अपने संगठन में ली है स्वप्ना? क्या तुम्हे यह प्रस्ताव स्वीकार है?"

"मगर मेरा बेटा?"

" उसकी ज़िम्मेदारी मेरी है. मैं यक़ीन दिलाता हूँ कि एक पिता का प्यार मैं हमेशा इस बच्चे को दूँगा."

स्वप्ना कुछ बोल न सकी. पिछले जीवन के काले साए अभी तक उसका पीछा कर रहे थे.

राजशेखर ने कहा
" स्वप्ना तुमने मेरी जितनी सहायता की है उसी के कारण आज मैं जीना सीख पाया हूँ. अब प्रस्ताव ठुकरा कर मुझसे मेरी ज़िन्दगी मत छीनो."

राजशेखर की बातों में स्वप्ना की आँखों ने सच्चाई देखी. प्यार का अंकुर फूट चुका था. उसके बाद बाकायदा शुरू हुई एक फिल्मों जैसी प्रेम कहानी. फिल्मों, पार्कों, रेस्त्राँ और फूड कॉर्नर्स ने दोनो को यह भुला ही दिया कि उनके शरीर में एक खतरनाक वाएरस भी है. प्यार की कहानी में शादी का अहम मोड़ भी आया और दोनो सदा के लिए एक दूजे के हो गए. आज दोनो खुशहाल हैं.स्वप्ना कहती है "मुझे अगले जन्म में भी राजशेखर ही चाहिए." यह पूछने पर कि दोनो ही एचआईवी पोजिटिव हैं तो क्या जीवन के लिए डर नही लगता राजशेखर जवाब देते हैं कि "अगर ऐक्सीडेंट में डेथ हो जाए तो तुरंत ही मर जाते है जबकि एचआईवी पोजिटिव तो 15-20 साल तक भी जी सकते है. तो फिर डर कैसा?"

पोजिटिव - पोजिटिव शादी को एचआईवी का प्रसार रोकने का एक महत्वपूर्ण उपाय मानने वाले इस दंपत्ति ने एक मैरिज ब्यूरो भी खोला है जहाँ एचआईवी पोजिटिव लोगों की शादी के साथ यह भी सिखाते है की एचआईवी पोजिटिव होने के बाद भी कैसे सामान्य जैसा ही जीवन जिया जा सकता है.

हिन्दी ब्लॉग जगत की तरफ़ से स्वप्ना और राजशेखर को बहुत बधाई और सुखमय जीवन की शुभकामनाएँ.

Tuesday, November 17, 2009

मुस्लिम महिलाओं ने निकाला वन्देमातरम सम्मान मार्च








आज जहाँ देश में चारो ओर वन्दे मातरम सम्बन्धी विवाद चर्चा में है वहीं बनारस की मुस्लिम महिलाओं के प्रसिद्ध संगठन "मुस्लिम महिला फ़्रंट" ने गत 9 नवम्बर को वन्दे मातरम के विरोधियों को कड़ी चुनौती देते हुए "वन्दे मातरम सम्मान मार्च" निकाल कर उदघोष किया कि मुल्क पहले है और धर्म बाद में. सड़्क पर पर्दानशीं, हाथों में तिरंगा और ज़ुबान से निकलते वन्दे मातरम के सतत स्वर...कट्टरपंथियों के लिए यह करारा जवाब था, बनारस शहर की तमाम मुस्लिम महिलाओं की ओर से. ऊर्जा और आत्मविश्वास से भरी बुर्क़ानशीनों ने शहर के शास्त्री पार्क,सिगरा से मलदहिया चौराहे तक यह मार्च "विशाल भारत संस्थान" के तत्त्वाधान में निकाल कर कहा कि राष्ट्र गीत का अपमान करने वाले देशद्रोही हैं और यह अपराध किसी भी क़ीमत पर बर्दाश्त नही किया जाएगा. फ्रंट की नायब सदर नजमा परवीन ने कहा कि इस्लाम राष्ट्रभक्ति का हुक्म देता है अत: सभी मुसलमानों को इस मुद्दे पर आगे आकर धर्म के ठेकेदारों को मुँहतोड़ जवाब देना चाहिए.मुस्लिम महिला फ़्रंट की सचिव शबाना ने कहा कि धर्म की आड़ लेकर कट्टरपंथी नफ़रत फैलाना चाहते हैं ऐसे लोगों का सामाजिक बहिष्कार किया जाना चाहिए.उन्होने सरकार से मामले में तुरंत हस्तक्षेप की माँग भी की.

महिलाओं ने पोस्टरों के माध्यम से वन्दे मातरम को राष्ट्र्गीत का दर्जा मिलने तक का पूरा इतिहास देश के सामने रखा. पोस्टरों पर हिन्दी के साथ-साथ उर्दू में भी वन्दे मातरम लिखा था. पोस्टरों के ज़रिए बताया गया कि 1896 में मौलाना रहीमतुल्ला ने कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में वन्दे मातरम गाकर इसे राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलवाई. 1905 में बनारस के कांग्रेस अधिवेशन में गोखले ने वन्दे मातरम को राष्ट्रीय गीत का दर्जा दिया. 1913 में करांची अधिवेशन में सदर मोहम्मद बहादुर ने वन्दे मातरम गाया. 1923 में मौलाना मोहम्मद अली,1927 में डॉ.एम.ए.अंसारी,1940-45 मे मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने देश को वन्दे मातरम की शपथ दिलाई.

महिलाओं का कहना था कि वन्दे मातरम आज़ादी की लड़ाई का मूल मंत्र था. जब आज़ादी के दौरान इतने बड़े नेताओं ने सहर्ष वन्दे मातरम गाया तो आज यह विरोध क्यों? अशफ़ाक़उल्ला खाँ, मौलाना आज़ाद और डॉ.अंसारी जैसे देशभक्तों ने वन्दे मातरम कह कर देश के लिए सब कुछ कुर्बान कर दिया. हम इन देशभक्तों की क़ुर्बानी को ज़ाया नही होने देंगे और देश की एकता के लिए लगातार संघर्ष करेंगे.वतन के लिए जीना हमारा मकसद है और वतन की शान में कोई गुस्ताखी हम बरदाश्त नहीं करेंगे.
जयहिन्द हो या वन्दे मातरम
कहेंगे ज़रूर चाहे निकल जाए दम.

Monday, November 09, 2009

एक पोस्टर जिसने आँख में आँसू ला दिए



आज गिरिजेश जी का ब्लॉग देखा.यहाँ क्षमा कीजिएगा नामक पोस्ट पर एक लिंक दिया गया था Roots In Kashmir.अँग्रेजी की इस पोस्ट ने मन विचलित कर दिया. छद्म धर्मनिरपेक्षता के प्रति नफ़रत और गाढ़ी हो गई. लगा कैसे देश में रहते हैं हम जहाँ आतँकवादियों को गले लगाया जाता है, शाबाशियाँ दी जाती है और देशभक्तों को दुत्कारा जाता है...सिर्फ़ वोटों की लालच में!!! इस पोस्ट को आप भी यदि पढ़ेंगे तो निश्चित रूप से मन विचलित हो जाएगा. कश्मीरी पण्डितों की आवाज़ को मुखर करता यह पोस्टर हमें कुछ सोचने पर मजबूर करता है और आत्मावलोकन की आवश्यकता पर ज़ोर भी डालता है.

Thursday, November 05, 2009

फ़र्क़

वो जहाँ से आया
मैं वहीं से आई

वो भी यहीं आया
मैं भी यहीं आई

उसे भी पाला गया
मुझे भी पाला गया

उसने भी पढ़ा-लिखा
मैंने भी पढ़ा-लिखा

उसने भी सपने बुने
मैंने भी सपने बुने

उसने भी मेहनत की
मैंने भी मेहनत की

वो भी सफल बना
मैं भी सफल बनी

फिर वो सेलेक्ट करने वाला बना
फिर मैं सेलेक्ट होने वाली बनी.

Tuesday, November 03, 2009

सब त्रिया-चरित्र है !




जीवन के रंगमंच पर
माँ,बहन,बेटी,पत्नी,
देवरानी,जिठानी,बहू,सास,नन्द
जैसे चरित्रों को
संजीदगी से निभाते-निभाते
एक दिन
आँख भर आई मेरी
इन सारे चरित्रों के बीच
अपने "स्व" के कहीं खो जाने पर.


मन की इस व्यथा पर
कुछ बोलना चाहा होठों ने
किंतु शब्द मौन हो गए
लेकिन आँखे वाचाल होकर बोल उठीं
आँसुओं की भाषा...


उसी दिन मेरे कानों ने सुना था
औरत को कोई समझ पाया है आज तक?
सब त्रिया-चरित्र है
ऐक्टिंग मार रही है
नाटकबाज़ कहीं की!

Friday, October 30, 2009

बेगम अख़्तर की गाई चुनिन्दा ग़ज़लें


पिछली सात अक्टूबर को जब बेगम अख़्तर की जयँती के अवसर पर उनसे सम्बन्धित मैने पोस्ट लगाई थी तो बहुत लोगों ने यह फ़रमाइश की थी कि उनकी चुनिन्दा ग़ज़ले सुनवाऊँ. आज उनकी पुण्यतिथि है, आपके लिए लाई हूँ कुछ ऐसी ग़ज़ले जिनके चलते वो रह्ती दुनिया तक अमर रहेंगी. बेगम साहिबा की आवाज़ की सबसे बड़ी खासियत थीं आवाज़ का दर्द में डूबा होना. उनकी ग़ज़लें ज़ेहन पर एक अजब असर डालती हैं.जहाँ एक ओर उनमें कशिश है वही अल्फ़ाज़ों के रखरखाव का एक नायाब अन्दाज़ उन्हे और गायकों से जुदा करता है.जहाँ शास्त्रीय संगीत का पुट उनकी आवाज़ में है वही जज़्बात की अदायगी का बेजोड़ अन्दाज़, सुनने वाले को मजबूर करता है कि वो हमेशा के लिए उनका दीवाना हो जाए.

आकाशवाणी से उनका जुड़ाव 25 सितम्बर 1948 को हुआ, जब आकाशवाणी लखनऊ के स्टूडियों में पहली बार उनकी आवाज़ गूँजी थी.

वो जो हममे तुममें क़रार था,तुम्हें याद हो के न याद हो
वही यानी वादा निभाह का तुम्हे याद हो के न याद हो.



अब इसे बेगम साहिबा की आवाज़ की सलाहियत कहिए या उनका खुलूस कि लखनऊ की उस ज़माने की महफ़िलें आज भी लोगों को नहीं भूली है. लखनऊ के हैवलक रोड इलाके में बेगम साहिबा का मकान भले ही वीरान पड़ा है मगर आज भी फिज़ाओं में मानो यह ग़ज़ल गूँजती है. सुनिये, यक़ीनन यह आपकी रूह में उतर जाएगी.

अब छलकते हुए साग़र नहीं देखे जाते
तौबा के बाद यह मंज़र नहीं देखे जाते.



बेगम अख़्तर एक बार आकाशवाणी लखनऊ के स्टूडियो में गाने आईं. उदघोषिका ने उनका नाम ग़ल्ती से बेग़म अख़्तर एनाउंस कर दिया. कार्यक्रम समाप्त होने के बाद बेगम साहिबा उस एनाउंसर के पास आकर बोली " बिटिया मैं बहुत ग़मज़दा हूँ तुमने मुझे बेग़म क्यों कहा? मैं तो बेगम हूँ, जनाब इश्तियाक़ अहमद अब्बासी की बेगम!"

उनकी आवाज़ में यह ग़ज़ल, अपने आप में कितने ग़म समेटे है आप भी सुनिए...

कोई ये कह दे गुलशन-गुलशन,लाख बलायें एक नशेमन
फूल खिले है गुलशन गुलशन लेकिन अपना अपना दामन.



बेगम साहिबा की आवाज़ में अक्सर नासिका स्वर लगते थे. कोई और होता तो यह ऐब कहलाता मगर बेगम साहिबा ने क्या खूबी के साथ इस कमी को भी अपनी खासियत में बदल कर गायन की एक अलग शैली ही बना डाली.

मेरे हमनफस मेरे हमनवा मुझे दोस्त बनके दग़ा न दे...



एक इतनी बड़ी कलाकार जिसकी दुनिया दीवानी थी खुद बहुत सरल स्वभाव की थीं. अपनी शिष्याओं को हमेशा अपनी बेटी की तरह रखती थीं. ग़रीब परिवार की ज़रीना बेगम भी उनकी शिष्याओं में से एक थीं. वो बताती हैं कि "अम्मी हमसे फीस तो नहीं ही लेती थी उल्टा हमें खाने को अच्छी अच्छी चीज़ें दिया करती थी." 30 अक्तूबर 1974 को बेगम साहिबा ने दुनिया से पर्दा किया मगर उनकी आवाज़ का जादू हमेशा एक सुरूर की तरह छाया रहेगा उनके चाहनेवालों पर.


उल्टी हो गई सब तदबीरें कुछ न दवा ने काम किया
देखा इस बीमार-ए-दिल ने आखिर काम तमाम किया.

Wednesday, October 28, 2009

लिफ़ाफ़ाबाद का ब्लॉगर सम्मेलन और मच्छर


एक शहर था लिफाफाबाद. उस शहर में कुछ ब्लॉगर और बहुत सारे मच्छर रहते थे. ब्लॉगर बड़ी मेहनत से ब्लॉगिंग करते थे और मच्छर खून चूसने का पुश्तैनी काम किया करते थे.मच्छरों को ब्लॉगर्स के ब्लॉग पढ पढ कर बड़ी ईर्ष्या होती थी क्यों कि खून चूसने का काम कोई सरकारी नौकरी की तरह तो था नही कि ऑफ़िस पहुँचे नहीं कि ब्लॉगिंग और टिपियाना शुरू! यहाँ तो रात-रात भर जाग कर कस्टमर के सिर पर घंटों लोरी गाइए तब जाकर बूँद भर खून का इंतजाम हो पाएगा. अब रात भर इतनी मेहनत के बाद कोई क्या खाक ब्लॉगिंग करेगा? यही कारण था कि क्वालिफ़िकेशन होते हुए भी एक भी मच्छर अब तक अपना ब्लॉग नहीं बना पाया था. वैसे भी ब्लॉगिंग के लिए कितनी योग्यता की ज़रूरत ही होती है?

एक दिन शहर के एक ब्लॉगर को जाने क्या सूझी कि उसने देश भर के ब्लॉगरों की मीटिंग बुलाने की सोची. पोस्टों के आदान प्रदान, सनाम और बेनामी टिप्पणियों,यहाँ तक कि ऐग्रीगेटर, मॉडरेशन के बावजूद काफ़ी कुछ ऐसा था जिसे आमने-सामने बैठ कर सलटाया जाना ज़रूरी लगता था. बात शहर के अन्य ब्लॉगरों तक पहुँची. सबने कहा व्हॉट ऐन आइडिया सर जी! तीन बार सबने कहा "क़ुबूल,क़ुबूल,क़ुबूल" और मीटिंग बुलानी पक्की हो गई. किसे-किसे बुलाना है, लिस्ट बनने लगी, ईमेल पते ढूँढे जाने लगे, मोबाइल बजने लगे. लकी ड्रॉ निकाल कर ब्लॉगर अतिथियों की लिस्ट बनाई गई. फोन किए गए. जिनके फोन बजे वो धन्य हुए जिनके नही बजे वे मोबाइल कम्पनियों को गरियाने लगे कि अनचाही कॉलें तो खूब मिलती है पर मनचाही नहीं.

निमंत्रण मोहल्लों, कॉफ़ी हाउसों में पहुँचने लगे. ब्लॉगर समझ गए कि भड़ास निकालने का मौक़ा आ गया है."लिफ़ाफ़ाबादी" अपने काम के धुरन्धर होते हैं अत: ब्लॉगर की हर प्रजाति को न्योता भेजा गया.

" भेज रहा हूँ नेह निमंत्रण ब्लॉगर तुम्हे बुलाने को
हे कुंठासुर! हे भैंसासुर! भूल न जाना आने को "

मीटिंग में कुंठासुर से लेकर भैंसासुर तक, मसिजीवी से लेकर श्रमजीवी तक, अफ़लातून, खातून , रवि ,कवि,वैज्ञानिक, इंजीनियर,साहित्यकार,पत्रकार सभी चिठ्ठाकार की कैपेसिटी में पहुँचे. मच्छरों को ब्लॉगरों की यह फुरसतिया गैदरिंग देख कर बड़ी कोफ़्त हुई पर बिचारे कर क्या सकते थे! मच्छरों को बड़ा दुख हुआ कि इतने बड़े आयोजन में उन्हें नही बुलाया गया श्रमजीवी और मसिजीवी तो नही मगर परजीवी श्रेणी में तो उनकी बिरादरी आती ही है और यह किसे नहीं पता कि कुछ ब्लॉगर जन्म से ही परजीवी होते हैं (कॉपी-पेस्ट ज़िन्दाबाद!). फ़िलहाल मच्छरगण मीटिंग को लेकर बहुत उत्सुक थे. उन्होने तय किया कि भले ही बुलाया न गया हो पर वो भी सभागार में भनभनाएँगे तो ज़रूर. हो सकता है कोई दिलवाला उन्हे भी माइक सौंप दे!

खैर मीटिंग शुरू हुई.माला-फूल,दीप-बाती,भाषण कॉफ़ी के बीच उदघाटन सत्र बीता. ब्लॉगरों का रोल ताली बजाने के सिवा और कुछ नहीं था इस सत्र में. सब, बड़ी मजबूरी में गुड-ब्वाय बने बैठे रहे, सोचते रहे एक बार हमारा मौक़ा आने दो तब बताएँगे! इंतज़ार की घड़ियाँ खत्म हुईं. अगला सत्र शुरू होने की सीटी बजी. "खाए-पिए-अघाए लोगों" की जमात, एक साथ रिंग में उतर चुकी थी और रिंग-मास्टर का कंसेप्ट तो ब्लॉग जगत में होता ही नहीं. लोकतंत्र के पाँचवें खम्भे के इर्द-गिर्द् सब स्वतंत्र ! बात सीधी-साधी बातों से शुरू हुई पर सेंसेक्स की भाँति ही जुमले शूट करने लगे मसलन "ब्लॉग बहस का प्लेटफार्म नहीं है", "बेनामी दस कदम आकर जाकर लड़खड़ा जाएगा", "एक भी मर्द नहीं है जो स्वीकार करे कि हम अपनी पत्नी को पीटते हैं",औरत बिना दुपट्टे के चलना चाहती है जैसे जुमले। . . .(बन्द करो कोई पीछे से कुंठासुर जैसा कुछ कह रहा है।),पोर्नोग्राफ़ी जैसे जुमले पर वंस मोर के नारे लगने लगे...अपनी स्ट्रैटेजी के मुताबिक मच्छरगणों ने भनभनाना शुरू किया पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के धनी ब्लॉगर्स की हुँकार के आगे मच्छर फीके पड़ने लगे. मच्छरों ने एक कहावत सुन रखी थी कि ब्लॉगर कहीं का भी हो वो जात का "मुँहनोचवा" होता है..और आज के इस कार्यक्रम में वे इस कहावत का लाइव टेलीकास्ट देख रहे थे ! आयोजकों के तय किए गए विषय धरे के धरे रह गए. आखिर ब्लॉगर् किसी के निर्देशों को क्यों माने? हर व्यक्ति ने जिस विषय पर चाहा बोला, जो चाहा बोला! किसी के कुछ समझ में आया हो, न हो गरीब मच्छरों की समझ में कुछ नही आया.

शाम हुई, रात हुई. सारे दिन के थके हारे ब्लॉगर्स खर्राटे मार कर सो गए. उनके सपनों में लिफ़ाफ़ाबाद सम्मेलन की रिपोर्टिंग सम्बन्धी दाँवपेंच भरे आइडियाज़ आने लगे.मच्छर कोई ब्लॉगर तो थे नही जो सो जाते. उन्होने अपने कस्टमरों के सिर पर रोज़ की तरह लोरी गानी शुरू कर दी. आखिर रोज़ी-रोटी का सवाल था!

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नोट---@ "ब्लॉग बहस का प्लेटफार्म नहीं है", "बेनामी दस कदम आकर जाकर लड़खड़ा जाएगा", "एक भी मर्द नहीं है जो स्वीकार करे कि हम अपनी पत्नी को पीटते हैं",औरत बिना दुपट्टे के चलना चाहती है जैसे जुमले। . . .(बन्द करो कोई पीछे से कुंठासुर जैसा कुछ कह रहा है।)---पोस्ट का यह भाग गिरिजेश जी के ब्लॉग " एक आलसी का चिट्ठा" से साभार.
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Wednesday, October 21, 2009

धर्म

वो मेरा सबसे प्यारा दोस्त
जिसकी निगाहें
साफ़ एकदम,
जिसका दामन
पाक एकदम.
जिसने
हर मौक़े पर मदद की है मेरी
और
डूब कर सिर तक
निकाला है मुझे
गहरी नदी के पेट से
न जाने कितनी बार !
पर
आज मौक़ा मेरा आया है
चलो तोड़ डालें उसका सर
चलो जला डालें उसका घर

उसका धर्म मुझसे अलग है.

Sunday, October 18, 2009

ओबामा और गोवर्धन ब्राउन ने मनाई दीवाली










यूँ तो दीपपर्व हर वर्ष पूरी दुनिया में श्रद्धा, भक्ति और उल्लास के साथ मनाया जाता है पर इस बार की दीवाली कुछ और विशेष हुई जब वाइट हाउस में अमरीकी राष्ट्रपति ओबामा और 10,डाउनिंग स्ट्रीट,लन्दन में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री गॉर्डन ब्राउन ने वैदिक मंत्रोच्चार के बीच दीप प्रज्जवलित कर यहाँ उपस्थित हिन्दू, जैन, सिख और बौध समुदाय के लोगों को हर्षविभोर कर दिया. वाइट हाउस के ऐतिहासिक ईस्ट रूम में इस तरह के आयोजन का यह पहला मौका था.अमरीका में भारतीय राजदूत मीरा शंकर और अनेक गण्यमान उपस्थिति के बीच, ओबामा ने अपने सन्देश में कहा कि विश्व की इन महान आस्थाओं द्वारा मनाया जाने वाला दीपपर्व बुराई पर अच्छाई, अन्धकार पर प्रकाश और अधर्म पर धर्म की विजय का प्रतीक है. वाइट हाउस की इस ऐतिहासिक घटना को, अमरीका द्वारा उस देश मॆं, दीवाली को सरकारी मान्यता के रूप में देखा जा रहा है.ज्ञातव्य हो कि ओबामा का हनुमान प्रेम भी काफी चर्चित है और वे हनुमान मूर्ति को अपने साथ शुभांकर के रूप में सदा रखते हैं.

उधर लन्दन की 10, डाउनिंग स्ट्रीट में प्रधानमंत्री गॉर्डन ब्राउन द्वारा वैदिक मंत्रोच्चार के बीच राम की प्रतिमा के सामने दीप प्रज्ज्वलित करने का समाचार प्राप्त हुआ है.हालाँकि सरकारी तौर पर ब्रिटिश प्रधानमंत्री का यह पहला दीवाली आयोजन था पर गार्डन ब्राउन पहले भी इस तरह के आयोजनों में भाग लेते रहे हैं. दो साल पहले गोवर्धन पूजा में प्रतिभागिता के मौक़े पर, गेंदे की माला पहने, मस्तक पर लाल टीका लगाए गॉर्डन ब्राउन को ब्रिटेन के हिन्दू फोरम ने स्नेह से "गोवर्धन ब्राउन" उपनाम दिया जिसे ब्राउन ने आह्लादित होकर स्वीकार किया. अपने सन्देश में उन्होने ब्रिटेन के विकास में भारतीयों के योगदान को सराहते हुए कहा कि डाउनिंग स्ट्रीट के इस आयोजन से भारत और ब्रिटेन के बीच रिश्तों में मज़बूती आएगी और भाईचारा विकसित होगा.

Friday, October 16, 2009

मकानों के इस जंगल में दीपावली


इस बार पारिवारिक कारणों से दीपावली नही मना रही हूँ. पता नही क्यों आज याद आ रहा है वर्ष 1993..उस साल भी दीपावली नही मनाई थी.हुआ यह कि उस समय नई-नई नौकरी लगी थी.बनारस में पहली पोस्टिंग..और किसी अति-मह्त्वपूर्ण आयोजन की ज़िम्मेदारी मेरी थी. दीपावली पास ही थी. हालाँकि सन्दर्भित आयोजन दीवाली के बाद होना था पर निदेशक महोदय ने घर(लखनऊ)आने की अनुमति मेरे लाख अनुरोध पर भी नहीं दी थी.बहुत मलाल हुआ था कि सर ने दीपावली के लिए भी छुट्टी नही दी. उस समय कच्चा मन था. "यह सब नौकरी में आम बात है" इस बात की समझ तब तक नही विकसित हो पाई थी .बनारस में सिगरा की सम्पूर्णानन्द नगर कालोनी में, अपने कमरे में, दीवाली की शाम अकेले बैठ कर एक कविता लिखी थी वो आज आपके सम्मुख प्रस्तुत है.


सन्ध्या के सुरमई क्षणों में
मकानों के इस जंगल में
रह-रह कर जलते
बिजली के छोटे-छोटे बल्बों का स्पन्दन
याद दिला रहा है
कि आज दीपावली है.


हरे, नीले, सुरमई, गुलाबी..
जीवन के किसी भी रंग की
कोई खास अहमियत न हो जँहा,
संगमरमर की दूधिया फ़र्श पर सजी
रंगोली की लकीरों का गेरूई रंग
याद दिला रहा है
कि आज दीपावली है.


फुलझड़ियों की जगमगाहट
बर्तनों की चमचमाहट
पटाखों की गड़्गड़ाहट
और चूड़ियों की छनछनाहट के बीच
जब सब कुछ भूलता भूलता सा लगे
लक्ष्मी-पूजन का
गृहलक्षमी द्वारा आस्थापूर्वक श्रीगणेश
एकाएक याद दिला रहा है
कि आज दीपावली है.


प्रियजन से दूर
उपवन से दूर
अपनो से दूर
इस अजनबी से देश में
आँखों की एक कोर से दूसरे कोर तक फैले
गहरे समुद्र में,
बार-बार छलक आए
कुछ मोतियों का अपरिभाषित, अनाम रंग
बार बार याद दिला रहा है
कि सचमुच आज ही दीपावली है.

Monday, October 12, 2009

वे

कुर्सी के सापेक्ष

आला अफ़सर हैं वे,

मानवीय सम्वेदनाओं के सापेक्ष

चपरासी भी नही.

Wednesday, October 07, 2009

"ऐ मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया"

(बेगम अख्तर जयँती पर विशेष)






एक कमसिन सी लड्की को उसकी माँ किसी पीर के पास दुआ के वास्ते ले गई .पीर ने ग़ज़ल का एक दीवान लड्की के हाथ में देकर कोई एक पन्ना खोलने को कहा साथ ही यह भविष्यवाणी भी किया कि जो भी पन्ना खुलेगा उस पर लिखी ग़ज़ल गाकर लड्की बहुत नाम और यश पाएगी. लड्की पन्ना खोलती है, वहाँ लिखा है-----

“ दीवाना बनाना है तो दीवाना बना दे, वरना कहीं तक़दीर तमाशा न बना दे...”

दुनिया को अपने फ़न से दीवाना बनाने वाली यह लड्की और कोई नही बल्कि मल्लिका-ए-ग़ज़ल बेगम अख्तर थी. हिन्दुस्तान में क्लासिकी ग़ज़ल को अनोखी ऊँचाइयों तक पहुँचाने वाली बेगम अख्तर के बारे में कैफ़ी आज़मी कहा करते थे ----

"ग़ज़ल के दो मायने होते हैं--पहला ग़ज़ल और दूसरा बेगम अख्तर."

न केवल ग़ज़ल बल्कि ठुमरी और दादरा को अपनी आवाज़ से सजा कर एक नया कलेवर देने वाली बेगम अख्तर का बचपन का नाम बिब्बी था. उनका जन्म 7 अक्तूबर 1914 को फ़ैज़ाबाद के रीडगंज इलाक़े में मुश्तरीबाई के घर हुआ था. गाना मुश्तरीबाई के लिए आजीविका का साधन था पर वो बिब्बी को इस लाइन में नही डालना चाहती थीं. उन्होने बिब्बी का नाम मिशनरी स्कूल में लिखाया और पढाई में मन लगाने को कहा. बिब्बी बहुत शैतान थी. वहाँ एक दिन क्लास-टीचर कुर्सी पर बैठी इमला बोल रही थी, उनकी नागिन सी लम्बी चोटी नीचे लटक रही थी जो बिब्बी को बहुत पसन्द थी. जब सारी लडकियाँ ज़मीन पर बैठी स्लेट पर इमला लिख रही थीं, बिब्बी ने चुपके से कैंची निकाली और टीचर की चोटी का निचला हिस्सा काट कर अपने बस्ते में रख लिया. उसके बाद से बिब्बी कभी स्कूल नही गई.

संगीत से पहला प्यार 7 वर्ष की उम्र में थियेटर अभिनेत्री चन्दा का गाना सुनकर हुआ तो संगीत की प्रारम्भिक शिक्षा पटना के सारंगी नवाज़ उस्ताद इम्दाद खाँ से मिली. मंच पर अपना पहला कार्यक्रम बिब्बी ने 14 वर्ष की आयु में कलकत्ते में प्रस्तुत किया .इस कार्यक्रम से प्रभावित होकर मेगाफोन रिकार्ड कम्पनी ने बिब्बी का गाया पहला गाना रिकार्ड किया----

"तूने बुत-ए-हरजाई कुछ ऐसी अदा पाई, तकता है तेरी सूरत हर एक तमाशाई"

मेगाफोन कम्पनी के इस रिकार्ड ने ‘रिकार्ड’ धूम मचाई. चारो ओर बिब्बी की चर्चा होने लगी और इसी रिकार्ड से बिब्बी, बिब्बी से अख्तरीबाई ‘फ़ैज़ाबादी’ बन गई. उसके बाद अख्तरी ने पीछे पलट कर नही देखा. रिकार्ड कम्पनियों में उनके गानों को रिकार्ड करने की होड सी लग गई तो दूसरी ओर मंच पर उन्हे सुनने वालों की भीड के चलते हॉल छोटे पड्ने लगे. पटियाला घराने के अता मोहम्मद खाँ की तालीम ने उन्हे कठिन से कठिन मीड्, मुरकी, खटका , तानें बडी आसानी और लेने की सलाहियत बक्शी तो किराना घराने के अब्दुल वहीद खाँ ने उनके गायन को भाव प्रवणता प्रदान की. उस्ताद झन्डे खाँ साह्ब से भी अख्तरी बाई ने तालीम हासिल की.

उनकी गायकी जहाँ एक ओर चंचलता और शोखी से भरी है वही दूसरी ओर उसमें शास्त्रीयता और दिल को छू लेने वाली गहराइयाँ हैं. आवाज़ में ग़ज़ब का लोच, रंजकता, भाव अभिव्यक्ति के कैनवास को अनन्त रंगों से रंगने की क्षमता के कारण उनकी गाई ठुमरियाँ बेजोड हैं.

प्रसिद्ध संगीतविद जी.एन.जोशी 1984 में बेगम अख्तर पर लिखी अपनी किताब "डाउन द मेमोरी लेन" में लिखते हैं कि ठुमरी " कोयलिया मत कर पुकार, करेजवा मारे कटार" में 'कटार' का वार इतना गहरा है जिसे ताउम्र भूलना मुश्किल है.

सब कुछ था पर अख्तरी साहिबा औरत की सबसे बडी सफलता एक कामयाब बीवी होने में मानती थीं. इसी चाहत ने उनकी मुलाक़ात लखनऊ में बैरिस्टर इश्तियाक़ अहमद अब्बासी से करवाई. यह मुलाक़ात जल्द ही निक़ाह में बदल गई पर इसके बाद सामाजिक बन्धनों के चलते अख्तरी साहिबा को गाना छोड्ना पडा. गाना छोड्ना उनके लिए वैसा ही था जैसे एक मछली का पानी के बिना रहना.अख्तरी बीमार रहने लगी. उनकी गाई एक बहुत प्रसिद्ध ग़ज़ल है--

"ऐ मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया...."



डॉक्टरों की सलाह के आगे अब्बासी साहब को झुकना पडा और चार साल के लम्बे अन्तराल के बाद 25सितम्बर 1948 को बेगम साहिबा आकाशवाणी लखनऊ के स्टूडियो में रिकार्डिग कराने पहुँची. इसी रेडियो माइक ने उन्हे बेगम अख्तर के नाम से सारी दुनिया में मशहूर कर दिया.

बेगम साहिबा का सम्मान समाज के जानेमाने लोग करते थे.सरोजिनी नायडू बेगम अख्तर की बहुत बडी फ़ैन थीं तो कैफ़ी आज़मी भी अपनी ग़ज़लों को बेगम साहिबा की आवाज़ में सुन कर मन्त्रमुग्ध हो जाते थे. 1974 में बेगम साहिबा ने अपने जन्मदिन पर कैफ़ी आज़मी की यह ग़ज़ल गाई —

वो तेग़ मिल गई जिससे हुआ था क़त्ल मेरा,

किसी के हाथ का लेकिन वहाँ निशाँ नहीं मिलता.

तो कैफ़ी समेत वहाँ उपस्थित लोगों की आँखें नम हो आईं. किसी को नही मालूम था कि इस ग़ज़ल की लाइने इतनी जल्दी सच हो जाएँगी. 30अक्टूबर 1974 को बेगम साहिबा ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया मगर संगीत के आकाश का यह सूरज अपनी आवाज़ की रौशनी से दुनिया को रौशन करता रहेगा रहती दुनिया तक.

(7 अक्टूबर 2008 को दैनिक जागरण,लखनऊ से प्रकाशित)

Wednesday, September 30, 2009

सोशल- एडजस्टमेंट/सोशल इंजीनियरिंग

प्लास्टिक के टुकड़े की तरह

चिटक-चिटक जाती हैं

मन की कोमल भावनाएँ

और बार-बार

विवशता का फ़ेवीकोल लगा कर

जोड़ा जाता है मन...

सोशल एडजस्टमेंट इसी को तो कहते हैं !

Tuesday, September 29, 2009

अभिनन्दन ब्लॉगवाणी






घर घर कलश सजाओ री,
मंगल गाओ री,
दीप जलाओ री ,
चौक पुराओ री ,

कोयल कूके मधुर वाणी

झूमे गाएँ सकल नर नारी
मनाओ दीवाली कि घर आई ब्लॉगवाणी...


अभिनन्दन ब्लॉगवाणी

Sunday, September 27, 2009

जहाँ राम का धर्म इस्लाम है...







भारत में उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से करीब 15 किमी दूर बक्शी के तालाब की रामलीला साम्प्रदायिक सौहार्द्र की एक बड़ी मिसाल है.यहाँ पर न केवल रामलीला के प्रबन्धन में मुस्लिम समुदाय के लोग भाग लेते है बल्कि राम, लक्षमण, दशरथ और रामायण के सभी महत्वपूर्ण चरित्रों का रोल भी मुस्लिम समुदाय के लोगों द्वारा अभिनीत किया जाता है तथा पूरे हिन्दू समाज द्वारा इसे पूरी आस्था के साथ स्वीकार भी किया जाता है.


इस रामलीला कमेटी के मुखिया डॉ. मंसूर अहमद बताते हैं कि यह अनोखी रामलीला उनके पिताजी के समय शुरू हुई और पिछले 30 सालों से भी अधिक समय से नियमित रूप से होती आ रही है. क्षेत्र में साम्प्रदायिक सौहार्द्र् का आलम यह है कि रमज़ान के महीने मे राम, लक्षमण आदि का रोल कर रहे मुस्लिम भाई चूँकि रोज़े से होते हैं अत: रोज़ा इफ़्तार के समय रामलीला बीच में रोक कर पहले इफ़्तार किया जाता है, फिर नमाज़ पढ कर फिर से रामलीला शुरू की जाती है. और हाँ रोज़ा इफ़्तार का प्रबन्ध हिन्दू भाइयों द्वारा किया जाता है..

रामलीला कमेटी के सचिव विदेशपाल यादव जी बताते हैं कि इस रामलीला को देखने दूर दूर से लोग आते हैं. 50 हज़ार से भी अधिक दर्शकों के सामने राम का अभिनय करना कैसा लगता है यह पूछने पर राम का रोल कर रहे कमाल खाँ कहते हैं कि मेरे लिए यह अद्भुत अनुभव होता है. एक देवता के रूप में लोग पैर छूते हैं, आरती उतारते हैं ! इसे शब्दों में बाँध पाना मुश्किल है. रामलीला देखने आई एक महिला सुनीता से जब मैने पूछा कि एक मुस्लिम को राम के रूप में देख कर कैसा लगता है तो वह बोली कोई किसी भी धर्म का हो जब वो राम के रूप में आ गया तो पूज्यनीय ही हुआ न!

रामलीला का निर्देशन करने वाले साबिर खाँ के हाथों में रामायण थी और वो बड़ी आस्थापूर्वक नंगे पाँव खडे थे.कारण पूछने पर वे कहते हैं कि मेरे लिए जितनी क़ुरआन पवित्र है उतनी ही रामायण.साबिर खाँ साहब को पूरी रामायण याद है और सभी पुराणों का अध्य्यन भी उन्होने किया है.

रामलीला कमेटी के कार्यकर्ता नागेन्द्र बताते हैं कि यहाँ पर दोनो साम्प्रदाय के लोग बरसों से मिलजुल कर रह्ते है. पास के चन्द्रिका देवी मन्दिर के जीर्णोद्धार में भी मुस्लिम भाइयों ने कारसेवा की.

कमेटी के ऊर्जावान कार्यकर्ता आशिद अली कहते हैं कि ताली एक हाथ से नही बजती हम लोग रामलीला करते हैं तो हिन्दू भाई भी ईद और हमारे अन्य आयोजनों में बढ़ चढ कर हिस्सा लेते हैं.

आज पूरे देश में जहाँ एक ओर साम्प्रदायिक तनाव की चर्चा आम होने लगी है ऐसे में बक्शी के तालाब की यह रामलीला इस बात का सबूत है कि प्रेम से बड़ा कोई धर्म नही है.

Tuesday, September 22, 2009

गिफ़्ट पैक

औरतों में प्रतिभा नही होती
पर होती हैं उनके पास बिन्दी, चूड़ियाँ, काजल..


औरतों मेहनत भी नही कर पातीं
पर उन्हे आता है चहकना, खिलखिलाना, मुस्कुराना...


औरतों के लिए आगे बढ़ना मुश्किल नही होता

बड़ी आसानी से
वे बढ़ जाती हैं आगे

अगले को
अपनी मुस्कान का "गिफ़्ट-पैक"
पकड़ा कर ...


वे पा लेती हैं ऊँचाइयाँ
बस खिलखिला कर ..


कर देती हैं द्रवित
मोती जैसे आँसुओं से.


पा जाती हैं औरतें, बड़ी-बड़ी उपलब्धियाँ, बड़ी आसानी से.


शो-बिज़नेस का ज़माना है
और
औरतें होती हैं
शो-पीस की मानिन्द ...


कोई ज़रूरत ही कहाँ है इन्हे
परिश्रम की ?
कोई ज़रूरत ही कहाँ है इन्हे
प्रतिभा की?


इन्हे तो आगे बढ़्ना ही बढ़्ना है
यह नहीं बढ़ेंगी तो और कौन बढ़ेगा आगे?


इन्दिरा, लता, महादेवी, किरन बेदी
सभी प्रतिभाहीन
एक तरफ़ से.

Friday, September 18, 2009

नारायणि नमोऽस्तु ते॥





“सर्वमङ्गलमङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके।
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते॥”


हे नारायणी!आप सब प्रकार का मङ्गल प्रदान करनेवाली मङ्गलमयी हैं। कल्याणदायिनी शिवा हैं। सब पुरुषार्थो को सिद्ध करनेवाली, शरणागतवत्सला, तीन नेत्रोंवाली एवं गौरी हैं। आपको नमस्कार है।






“सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्ति समन्विते।
भयेभ्याहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तु ते॥


सर्वस्वरूपा, सर्वेश्वरी तथा सब प्रकार की शक्तियों से सम्पन्न दिव्यरूपा दुर्गे देवि! सब भयों से हमारी रक्षा करो; आपको नमस्कार है।




"सृष्टिस्थितिविनाशानां शक्ति भूते सनातनि।
गुणाश्रये गुणमये नारायणि नमोऽस्तु ते॥"


तुम सृष्टि, पालन और संहार की शक्ति भूता, सनातनी देवी, गुणों का आधार तथा सर्वगुणमयी हो। नारायणि! आपको नमस्कार है।






“शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे।
सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते॥”


शरण में आये हुए दीनों एवं पीडितों की रक्षा में संलग्न रहनेवाली तथा सबकी पीडा दूर करनेवाली नारायणी देवी! आपको नमस्कार है।






"ॐ जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी।
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते॥"


जयन्ती, मङ्गला, काली, भद्रकाली, कपालिनी, दुर्गा, क्षमा, शिवा, धात्री, स्वाहा और स्वधा- इन नामों से प्रसिद्ध जगदम्बिके! आपको मेरा नमस्कार हो।




"देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि मे परमं सुखम्।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥"


हे माँ ! मुझे सौभाग्य और आरोग्य दो। काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो, रूप दो, जय दो, यश दो और परम सुख दो.

Thursday, September 17, 2009

विभाजन के समय मारे गए हज़ारों हिन्दुओं का पिंडदान और तर्पण : तेभ्य: स्वधा


चीड़ वन के आहत मौन को समर्पित, प्रसिद्ध साहित्यकार डॉ.नीरजा माधव का उपन्यास "तेभ्य:स्वधा" कश्मीर की राजौरी घाटी के शरणार्थी शिविरों में बसे उन हज़ारों अनाम हिन्दुओं को श्रद्धांजलि है जो भारत-विभाजन के समय पाकिस्तान से विस्थापित हुए और बर्बरतापूर्वक मारे गए.


आज पूरा विश्व आतंकवाद के खौफ़नाक साए में जीने को मजबूर है. आतंकवाद की मार से भारत सर्वाधिक घायल है परंतु आतंकवाद की निन्दा और उससे बदला लेने की एक अनूठी कोशिश का नाम है तेभ्य: स्वधा...

यह उपन्यास एक साधारण सी लड़्की मीना की कहानी पर आधारित है जिसका पूरा परिवार राजौरी में बसे शरणार्थियों पर सीमा पार से आए कबायलियों के हमले के दौरान मारा जाता है...साथ ही मारे जाते है पूरे गाँव के लोग... बची रह जाती है केवल एक लड़की मीना जिसे एक आक्रमणकारी कबायली जबरन उठा ले जाता है...लुट जाता है मीना का अस्तित्व...बन जाती है वो मीना से अमीना... पर साधारण सी लगने वाली मीना वास्तव में असाधारण है. कभी हार न मानने वाली लड़्की मीना...आतंकवादी से मीना को एक बेटा पैदा होता है जिसे पिता से जहाँ मज़हब की तालीम मिलती है, वहीं माता से वैदिक धर्म का ज्ञान... यही लड़्का बाद में अपनी माँ के साथ भारत आता है और माता की इच्छा के लिए पूरी श्रद्धा और विधान के साथ, गया जाकर उन हज़ारो लोगो का पिन्डदान व तर्पण करता है जो बरसों पहले राजौरी में मारे गए थे...

कथानक और विषय-वस्तु की द्रष्टि से उपन्यास पठनीय है.मानवीय सम्बन्धों की जटिलताओं और कहीं कहीं विवशताओं का बड़ा मार्मिक चित्रण उपन्यास मे किया गया है.

विद्दा विहार, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक का विक्रय मूल्य रु.200/- है.

भारत विभाजन और उसके बाद आज तक, साम्प्रदायिक हिंसा और आतंकवाद के कारण मारे गए सभी निर्दोष लोगों को मेरी ओर से भी श्रद्धांजलि और नमन.

Tuesday, September 15, 2009

सिफ़र का सफ़र




आज आपके लिए ले कर आई हूँ एक गीत. वास्तव में यह गीत, आजकल प्रत्येक शुक्रवार शाम 6:15 बजे, आकाशवाणी लखनऊ से प्रसारित हो रहे रेडियो धारावाहिक, "सिफ़र का सफ़र" का शीर्षक गीत है. यह नाट्य-धारावाहिक उन महिलाओं के जीवन की सच्ची घटनाओं पर आधारित है जिन्होने शून्य से शुरुआत कर शिखर तक पहुँचने में सफलता प्राप्त की और महिला सशक्तीकरण की अनुकरणीय मिसाल प्रस्तुत की. इस धारावाहिक को बनाने का अनुभव बहुत रोमांचकारी रहा. दुर्गम गाँवों की ऐसी-ऐसी महिलाओं से मिलने और उन्हें जानने का मौक़ा इसको बनाने के बहाने मिला, जो भले ही पढी-लिखी नही पर निसंकोच स्वीकारती हूँ कि उनकी हिम्मत और मेहनत की कहानी सुन कर कई बार मैंने अपने आपको छोटा मह्सूस किया. आपको उन महिलाओं से मिलवाऊँगी, आगे इसी ब्लॉग पर. आज प्रस्तुत है "सिफ़र का सफ़र" का शीर्षक-गीत. आपकी सुविधा के लिए गीत के साथ इसका ऑडियो भी प्रस्तुत है. इसका संगीत तैयार किया है हेम सिंह ने और गायन स्वर संगीता मिश्रा का है. पढिए, सुनिए यह गीत. कोशिश की है कि गीत के माध्यम से इन महिलाओं का जीवन अभिव्यक्त कर सकूँ. गीत आपको कैसा लगा, यह जानने का इंतज़ार रहेगा.


सिफ़र के सफ़र में, अँधेरों की स्याही
कहानी ये किसने लिखी और सुनाई ?

मगर हमने सपना अलग इक सजाया
किरनों को जोड़ा और सूरज उगाया,

सतरंगी चूनरिया पंख बने अरमान
हौसलों की हमने भरी एक उड़ान,

बूँद-बूँद रौशनी से जगमग जहान
आँगन में दुनिया आँचल में आसमान.


(गीत सुनने के लिए यहाँ क्लिक करें)

Wednesday, September 09, 2009

मेरा तर्पण डैडी तक पहुँचे

कई कारणों से आज का दिन मेरे लिए एक विशिष्ट दिन है. पहला,आज 09-09-09 है, जो स्वयँ में एक अद्वितीय तिथि है. दूसरा, तीन बार नौ अंकों वाली इस दुर्लभ तारीख को आश्विन मास कृष्ण पक्ष की पंचमी भी पड़ रही जो मेरे पूज्य पिताजी की श्राद्ध तिथि है और तीसरा यह कि सँयोग से आज ही मेरा जन्म-दिन भी है. इतने सारे सँयोगों वाली यह तिथि निसन्देह मेरे जीवन में पहली और आखिरी बार आई है और इन अद्भुत सँयोगों के चलते, आज के दिन बिल्कुल अलग तरह की मानसिक अनुभूतियों से घिरी हूँ मैं.

हर वर्ष मेरा नौ सितम्बर का दिन अपने लोगों की शुभकामनाओं और अपनेपन के उल्लास के बीच बीतता है. शायद एक रेडियो प्रोड्यूसर और प्रेज़ेंटर होने के कारण इतने सारे लोगों का जुड़ाव मुझसे है. कुछ लोग मिल कर मुझे बधाइयाँ प्रेषित करते हैं तो कुछ लोग फोन द्वारा. आज के दिन, अक्सर मेरा फोन बिना रूके बजता रहता है..फोन अटेंड करने पर कुछ के बधाई सन्देश प्राप्त होते हैं तो कुछ के उलाहने कि मेरे लिए तो आपके पास समय ही नही. सच, मैं मंत्रमुग्ध सी रह जाती हूँ, ईश्वर की इस अनुकम्पा पर कि उसने मुझे इतने सारे स्नेहिल लोग दिए. आज फिर नौ सितम्बर थी. फोन तो आज भी सारा दिन बजा किया, कभी कभी तो लाइव स्टूडियो के कारण फ़ोन स्विच ऑफ़ भी करना पड़ा पर फ़िर भी आज का दिन कुछ अलग मनोवेगों के बीच बीता... आज मेरे प्यारे डैडी का श्राद्ध भी तो था न !


26 दिसम्बर 1995 का वो दिन जब मैने अंतिम बार अपने डैडी को स्पर्श किया था. एक हिमशिला जैसा उनका ठंडा शरीर मुझमें एक अजब सिहरन भर गया था. मृत्यु कितनी शीत होती है.. वो आदमी को ठंडा कर देती है सदा के लिए.. फ़्रीज़ हो जाता है समय तक जैसे ... डैडी क्या गए मानो मेरे मन में बस गया एक पूरा का पूरा हिमखण्ड जो जब तब पिघलता रहता है..और मैं भीगा करती हूँ डैडी की यादों में.


दुनिया की हर लड़्की की तरह मैं भी कहा करती हूँ कि मेरे डैडी दुनिया के सबसे अच्छे पिता थे..बहुत अमीर रिश्तेदारों के बीच, साधारण आर्थिक स्थिति वाले मेरे डैडी बेहद असाधारण थे क्यों कि केवल दो बेटियों का पिता होने पर भी मैने उन्हे कभी बेटे के लिए तरसते नही पाया... अपनी दोनों बेटियों की परवरिश उन्होने बेटों से बढ कर की. अपनी कड़ी मेहनत की कमाई सँयुक्त परिवार के तमाम विरोधों के बावजूद उन्होने बेटियों की शिक्षा पर भरपूर लुटाई...डैडी चाहते थे कि हम दोनो बहने हर तरह से योग्य बने. उन्हे अपनी आर्थिक क्षमता और बेटियों के नाम पर समाज के चैलेंज का पूरा अहसास था शायद तभी तो कभी कभी मेरी तरफ़ बडी हसरत से देख कर वे कहा करते थे " बिटिया तू एक बार मेरा नाम कर दे दुनिया में..." डैडी से अंतिम विदा लेते समय उनके पैर छूकर मैने आसमान छू लेने की उनकी इच्छा पूरी करने का जो वायदा किया था वो एक पल भी चैन से बैठने नहीं देता...हर पल प्रयास जारी है.

और हाँ डैडी, आपके जाने के बाद से हर पितृपक्ष में, मैने आपके लिए तर्पण और श्राद्ध कर्म पूरी निष्ठा से किया है...कुछ लोग कहते हैं कि बेटी का तर्पण पित्तरों तक नही पहुँचता. डैडी मैं आपकी ही तो बेटी हूँ ना! आपका ही एक अंश! मुझे समाज के इस तरह के चैलेंज फेस करने के आपके तरीके पूरी तरह याद हैं...किसी से कुछ कहने-सुनने से बेहतर है, अपनी धुन में ,अपने उद्देश्य के लिए निरंतर कर्म करते जाना. इसी नियम से आपको सफल होते देखा है मैने सदा... आज मेरी बारी है... मैं पूरी निष्ठा से आपके लिए तर्पण करती हूँ और जैसे किसी पत्र पर पाने वाले का नाम पता लिख दिया जाता है, वैसे ही अर्घ्य की हर बूँद पर भावनाओं की स्याही से लिख देती हूँ " मेरा तर्पण डैडी तक पहुँचे..."


मुझे आस्था की शक्ति पर पूरा विश्वास है.


मुझे मालूम है, मेरा तर्पण आप तक पहुँच चुका है डैडी...


आपकी बेटी,
मीनू

Tuesday, September 01, 2009

पर्स में उगा पैसों का पेड़

अपने बिल्कुल खाली पर्स में उगे

पैसों के


इक पेड़ की छाँव में,


चॉकलेट का एक पौधा लगाना चाहती हूँ मैं


अपने बच्चे के लिए.


जिसकी पत्तियाँ टॉफ़ी की हों


और

जिस पर बिस्किट के फल उगें..


जिसकी छाल बेशक़ीमती कपड़ों की हो


तो फूल हों

सुन्दर खिलौनों से..


और फूलों की महक हो

बेहतरीन लज़ीज़ व्यंजनों की महक से मिलती



और जिसके बीज

एक ऐसा नया पेड़

उगा सकने में सक्षम हों

कि

उसकी जड़ पीस कर

अपने बच्चे को यदि पिलाऊँ मै

तो मेरा बच्चा

फिर कभी ज़िद्द न करे मुझसे

चॉकलेट,टॉफ़ी, बिस्किट, खिलौने और नए कपड़े

खरीद कर देने की.

Thursday, August 27, 2009

जूती

औरत-

पैर की जूती ही सही

मगर

क्या यह भी ध्यान है (?)

कि

जूती के काट लेने से

ज़ख्मी हो जाएगा

तुम्हारा पैर

और

लँगडा कर चलने पर मजबूर हो जाओगे तुम

उसी महफ़िल में

जहाँ

औरत को पैर की जूती कहने की शेखी बघार रहे हो तुम?

Monday, August 24, 2009

शुभम् करोति कल्याणम्





सिद्धयन्तिसर्वकार्याणिमनसा चिन्तितान्यपि।तेन ख्यातिंगतोलोकेनाम्नासिद्धिविनायक:॥







एकदन्तं चतुर्हस्तं पाशमंकुशधारिणम्।
रदं च वरदं हस्तैर्विभ्राणं मूषक ध्वजम्।
रक्तं लम्बोदरं शूर्पकर्णकं रक्तवाससम् ....।।

Thursday, August 20, 2009

एक कविता सिर्फ़ तुम्हारे लिए

उस दिन
जबसे बारिश नहीं हुआ करेगी, न होंगे बादल, न आसमान,

उस दिन
जबसे हवाएँ नहीं बहा करेंगी ,वृक्ष नहीं होंगे, न ही उनकी टहनियाँ, न पत्तियाँ, न कोपलें.


जब समुद्र तट पर नहीं देखी जा सकेंगी चौपाटियाँ,
आना बंद कर देंगे वहाँ हमेशा के लिए
भेलपुरी/पानीपूरी वाले.
कभी नहीं दिखेंगी वहाँ जब
पल में रचने वाली, मेहँदी लगानेवालियाँ.



बेले के गजरे जब मुरझा जाएँगे सदा के लिए
और
मोगरे की लड़ियाँ बिकनी बंद हो जाएंगी जबसे
हमेशा के लिए.



जब समुद्र की लहरें नहीं होंगी,
गीली रेत पर पैरों के निशाँ नहीं होंगे,
और लहरों में भीगने से बचने के लिए,
जींस/शलवार को घुटनों तक चढा लेने की हिदायतें भी न होंगी जब!



जब सूरज न होगा, ना ही उसकी रश्मियाँ, ना ही धूप ही बची रह जाएगी


तारे नहीं होंगे


जिस दिन साँसे भी अस्तित्व में नहीं रह जाएंगी


और चाँद भी कहाँ होगा भला तब?
नदी, झील, झरने, सब थम जाएंगे


धरती, जल, मिट्टी
कुछ भी न बचे होंगे जब


उस दिन भी
शेष रह जाएगी
रुई के नर्म रेशों सी
ब्रह्माण्ड में तिरती

तुम्हे पा लेने की मेरी अपरिमित इच्छा.

Tuesday, August 18, 2009

सावन

जब जब भी

बेतरह बरसती हैं

मेरी आँखें ,

बेहद हैरानी होती है

कि

मन के किसी कोने में

अब भी सावन बसता है.


और

जब जब भी

बेतरह बरसती हैं

मेरी आँखें ,

बेहद खुशी भी होती है

कि

मन के किसी कोने में

अब भी सावन बसता है .

Saturday, August 15, 2009

वन्दे मातरम!





आज स्वाधीनता दिवस है. मेरा आज का दिन विधान सभा समारोह की कवरेज और उसकी रेडियो-रिपोर्ट बनाने में बीतता रहा हैं. पूरी कवरेज टीम की पसीनाबहाऊ सरगर्मियों का बैकग्राउंड समेटे यह रिपोर्ट खासी थकाने वाली होती है. आज कई वर्षों बाद मेरी ड्यूटी कवरेज में नही लगाई गई है. यानी आज के दिन मैं फ़्री ! परिवारजन कई वर्षों बाद आज इस तरह खुश दिखे.स्वतंत्रता दिवस के दिन मेरा भी स्वतंत्र होना सबके लिए सुखद आश्चर्य है.

सुबह ऑफ़िस के ध्वजारोहण समारोह के बाद से समझ में नही आ रहा क्या करूँ. घरवालों के डर से यह कहने की हिम्मत नही है कि आज की छुट्टी बेरंग लग रही है. कैसे उन्हे बताऊँ कि आज के दिन की रेडियो रिपोर्ट मुझ जैसी साधारण ब्रॉड्कास्टर के लिए, मेरी तरफ़ से एक छोटी सी पुष्पाँजलि होती है भारत माँ के चरणों में ... पर कौन सुनेगा मेरी? हमेशा आप ही की ड्यूटी क्यों लग जाती है ऐसे कामों में? सरकारी नौकरी में ज़्यादा काम करने से तनख्वाह बढ् के नही मिल जाएगी. ..घर वालों की वही पुरानी दलीलें...पर फिर भी मन विचलित है.


एकाएक याद आ जाती है मई 2009 की 19 तारीख. ईरान की राजधानी तेहरान में आयोजित 10वें अंतर्राष्ट्रीय रेडियो फ़ेस्टिवल का अंतिम दिन. विश्व के 42 देशों से आए रेडियो कार्यक्रमों का कम्पटीशन जिसमें 121 फाइनल प्रविष्टियाँ है और जिसका रिज़ल्ट आज आउट होना हैं.एक वर्ग में भारत का प्रतिनिधित्व मेरे ज़िम्मे है. मैं बहुत नर्वस हूँ. पता नही क्या रिज़ल्ट होगा. अपने देश के लिए आज पूरी दुनिया के सामने सम्मान अर्जित कर पाऊँगी या खाली हाथ देश वापस लौटूँगी? मन कर रहा है किसी मन्दिर जाकर मनौती मान आऊँ, पर इस देश में आस पास कोई मन्दिर नही दीखता ..

शाम हो गई है.समारोह में भाग लेने के लिए मैं उस विराट हॉल में प्रवेश कर रही हूँ. दुनिया के 42 देशों के ध्वज कतार से लगे हैं. अपने तिरंगे के सामने मै ठिठक कर खडी हो जाती हूँ ,सबकी नज़र बचा कर, धीरे से तिरंगे को छू कर, भारत माँ से प्रार्थना करती हूँ " अगर आज भारत को शील्ड मिल जाती है तो लौटते में, मैं इसी तिरंगे के साथ फोटो खिचवाऊँगी."

भारत माँ ने मेरी प्रार्थना सुन ली है. मै शील्ड लेकर फोटो खिंचवा रही हूँ और भावुक स्वर में गा रही हूँ वन्दे मातरम!.


वन्दे मातरम! सुजलाम सुफलाम मलयज शीतलाम शस्य श्यामलाम मातरम! शु्भ्र ज्योत्सना पुलकित यामिनीम फुल्ल कुसुमितद्रुमदल शोभणीम. सुहासिनीम सुमधुर भाषणीम. सुखदाम् वरदाम् मातरम्. वन्दे मातरम!

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