Friday, October 30, 2009

बेगम अख़्तर की गाई चुनिन्दा ग़ज़लें


पिछली सात अक्टूबर को जब बेगम अख़्तर की जयँती के अवसर पर उनसे सम्बन्धित मैने पोस्ट लगाई थी तो बहुत लोगों ने यह फ़रमाइश की थी कि उनकी चुनिन्दा ग़ज़ले सुनवाऊँ. आज उनकी पुण्यतिथि है, आपके लिए लाई हूँ कुछ ऐसी ग़ज़ले जिनके चलते वो रह्ती दुनिया तक अमर रहेंगी. बेगम साहिबा की आवाज़ की सबसे बड़ी खासियत थीं आवाज़ का दर्द में डूबा होना. उनकी ग़ज़लें ज़ेहन पर एक अजब असर डालती हैं.जहाँ एक ओर उनमें कशिश है वही अल्फ़ाज़ों के रखरखाव का एक नायाब अन्दाज़ उन्हे और गायकों से जुदा करता है.जहाँ शास्त्रीय संगीत का पुट उनकी आवाज़ में है वही जज़्बात की अदायगी का बेजोड़ अन्दाज़, सुनने वाले को मजबूर करता है कि वो हमेशा के लिए उनका दीवाना हो जाए.

आकाशवाणी से उनका जुड़ाव 25 सितम्बर 1948 को हुआ, जब आकाशवाणी लखनऊ के स्टूडियों में पहली बार उनकी आवाज़ गूँजी थी.

वो जो हममे तुममें क़रार था,तुम्हें याद हो के न याद हो
वही यानी वादा निभाह का तुम्हे याद हो के न याद हो.



अब इसे बेगम साहिबा की आवाज़ की सलाहियत कहिए या उनका खुलूस कि लखनऊ की उस ज़माने की महफ़िलें आज भी लोगों को नहीं भूली है. लखनऊ के हैवलक रोड इलाके में बेगम साहिबा का मकान भले ही वीरान पड़ा है मगर आज भी फिज़ाओं में मानो यह ग़ज़ल गूँजती है. सुनिये, यक़ीनन यह आपकी रूह में उतर जाएगी.

अब छलकते हुए साग़र नहीं देखे जाते
तौबा के बाद यह मंज़र नहीं देखे जाते.



बेगम अख़्तर एक बार आकाशवाणी लखनऊ के स्टूडियो में गाने आईं. उदघोषिका ने उनका नाम ग़ल्ती से बेग़म अख़्तर एनाउंस कर दिया. कार्यक्रम समाप्त होने के बाद बेगम साहिबा उस एनाउंसर के पास आकर बोली " बिटिया मैं बहुत ग़मज़दा हूँ तुमने मुझे बेग़म क्यों कहा? मैं तो बेगम हूँ, जनाब इश्तियाक़ अहमद अब्बासी की बेगम!"

उनकी आवाज़ में यह ग़ज़ल, अपने आप में कितने ग़म समेटे है आप भी सुनिए...

कोई ये कह दे गुलशन-गुलशन,लाख बलायें एक नशेमन
फूल खिले है गुलशन गुलशन लेकिन अपना अपना दामन.



बेगम साहिबा की आवाज़ में अक्सर नासिका स्वर लगते थे. कोई और होता तो यह ऐब कहलाता मगर बेगम साहिबा ने क्या खूबी के साथ इस कमी को भी अपनी खासियत में बदल कर गायन की एक अलग शैली ही बना डाली.

मेरे हमनफस मेरे हमनवा मुझे दोस्त बनके दग़ा न दे...



एक इतनी बड़ी कलाकार जिसकी दुनिया दीवानी थी खुद बहुत सरल स्वभाव की थीं. अपनी शिष्याओं को हमेशा अपनी बेटी की तरह रखती थीं. ग़रीब परिवार की ज़रीना बेगम भी उनकी शिष्याओं में से एक थीं. वो बताती हैं कि "अम्मी हमसे फीस तो नहीं ही लेती थी उल्टा हमें खाने को अच्छी अच्छी चीज़ें दिया करती थी." 30 अक्तूबर 1974 को बेगम साहिबा ने दुनिया से पर्दा किया मगर उनकी आवाज़ का जादू हमेशा एक सुरूर की तरह छाया रहेगा उनके चाहनेवालों पर.


उल्टी हो गई सब तदबीरें कुछ न दवा ने काम किया
देखा इस बीमार-ए-दिल ने आखिर काम तमाम किया.

Wednesday, October 28, 2009

लिफ़ाफ़ाबाद का ब्लॉगर सम्मेलन और मच्छर


एक शहर था लिफाफाबाद. उस शहर में कुछ ब्लॉगर और बहुत सारे मच्छर रहते थे. ब्लॉगर बड़ी मेहनत से ब्लॉगिंग करते थे और मच्छर खून चूसने का पुश्तैनी काम किया करते थे.मच्छरों को ब्लॉगर्स के ब्लॉग पढ पढ कर बड़ी ईर्ष्या होती थी क्यों कि खून चूसने का काम कोई सरकारी नौकरी की तरह तो था नही कि ऑफ़िस पहुँचे नहीं कि ब्लॉगिंग और टिपियाना शुरू! यहाँ तो रात-रात भर जाग कर कस्टमर के सिर पर घंटों लोरी गाइए तब जाकर बूँद भर खून का इंतजाम हो पाएगा. अब रात भर इतनी मेहनत के बाद कोई क्या खाक ब्लॉगिंग करेगा? यही कारण था कि क्वालिफ़िकेशन होते हुए भी एक भी मच्छर अब तक अपना ब्लॉग नहीं बना पाया था. वैसे भी ब्लॉगिंग के लिए कितनी योग्यता की ज़रूरत ही होती है?

एक दिन शहर के एक ब्लॉगर को जाने क्या सूझी कि उसने देश भर के ब्लॉगरों की मीटिंग बुलाने की सोची. पोस्टों के आदान प्रदान, सनाम और बेनामी टिप्पणियों,यहाँ तक कि ऐग्रीगेटर, मॉडरेशन के बावजूद काफ़ी कुछ ऐसा था जिसे आमने-सामने बैठ कर सलटाया जाना ज़रूरी लगता था. बात शहर के अन्य ब्लॉगरों तक पहुँची. सबने कहा व्हॉट ऐन आइडिया सर जी! तीन बार सबने कहा "क़ुबूल,क़ुबूल,क़ुबूल" और मीटिंग बुलानी पक्की हो गई. किसे-किसे बुलाना है, लिस्ट बनने लगी, ईमेल पते ढूँढे जाने लगे, मोबाइल बजने लगे. लकी ड्रॉ निकाल कर ब्लॉगर अतिथियों की लिस्ट बनाई गई. फोन किए गए. जिनके फोन बजे वो धन्य हुए जिनके नही बजे वे मोबाइल कम्पनियों को गरियाने लगे कि अनचाही कॉलें तो खूब मिलती है पर मनचाही नहीं.

निमंत्रण मोहल्लों, कॉफ़ी हाउसों में पहुँचने लगे. ब्लॉगर समझ गए कि भड़ास निकालने का मौक़ा आ गया है."लिफ़ाफ़ाबादी" अपने काम के धुरन्धर होते हैं अत: ब्लॉगर की हर प्रजाति को न्योता भेजा गया.

" भेज रहा हूँ नेह निमंत्रण ब्लॉगर तुम्हे बुलाने को
हे कुंठासुर! हे भैंसासुर! भूल न जाना आने को "

मीटिंग में कुंठासुर से लेकर भैंसासुर तक, मसिजीवी से लेकर श्रमजीवी तक, अफ़लातून, खातून , रवि ,कवि,वैज्ञानिक, इंजीनियर,साहित्यकार,पत्रकार सभी चिठ्ठाकार की कैपेसिटी में पहुँचे. मच्छरों को ब्लॉगरों की यह फुरसतिया गैदरिंग देख कर बड़ी कोफ़्त हुई पर बिचारे कर क्या सकते थे! मच्छरों को बड़ा दुख हुआ कि इतने बड़े आयोजन में उन्हें नही बुलाया गया श्रमजीवी और मसिजीवी तो नही मगर परजीवी श्रेणी में तो उनकी बिरादरी आती ही है और यह किसे नहीं पता कि कुछ ब्लॉगर जन्म से ही परजीवी होते हैं (कॉपी-पेस्ट ज़िन्दाबाद!). फ़िलहाल मच्छरगण मीटिंग को लेकर बहुत उत्सुक थे. उन्होने तय किया कि भले ही बुलाया न गया हो पर वो भी सभागार में भनभनाएँगे तो ज़रूर. हो सकता है कोई दिलवाला उन्हे भी माइक सौंप दे!

खैर मीटिंग शुरू हुई.माला-फूल,दीप-बाती,भाषण कॉफ़ी के बीच उदघाटन सत्र बीता. ब्लॉगरों का रोल ताली बजाने के सिवा और कुछ नहीं था इस सत्र में. सब, बड़ी मजबूरी में गुड-ब्वाय बने बैठे रहे, सोचते रहे एक बार हमारा मौक़ा आने दो तब बताएँगे! इंतज़ार की घड़ियाँ खत्म हुईं. अगला सत्र शुरू होने की सीटी बजी. "खाए-पिए-अघाए लोगों" की जमात, एक साथ रिंग में उतर चुकी थी और रिंग-मास्टर का कंसेप्ट तो ब्लॉग जगत में होता ही नहीं. लोकतंत्र के पाँचवें खम्भे के इर्द-गिर्द् सब स्वतंत्र ! बात सीधी-साधी बातों से शुरू हुई पर सेंसेक्स की भाँति ही जुमले शूट करने लगे मसलन "ब्लॉग बहस का प्लेटफार्म नहीं है", "बेनामी दस कदम आकर जाकर लड़खड़ा जाएगा", "एक भी मर्द नहीं है जो स्वीकार करे कि हम अपनी पत्नी को पीटते हैं",औरत बिना दुपट्टे के चलना चाहती है जैसे जुमले। . . .(बन्द करो कोई पीछे से कुंठासुर जैसा कुछ कह रहा है।),पोर्नोग्राफ़ी जैसे जुमले पर वंस मोर के नारे लगने लगे...अपनी स्ट्रैटेजी के मुताबिक मच्छरगणों ने भनभनाना शुरू किया पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के धनी ब्लॉगर्स की हुँकार के आगे मच्छर फीके पड़ने लगे. मच्छरों ने एक कहावत सुन रखी थी कि ब्लॉगर कहीं का भी हो वो जात का "मुँहनोचवा" होता है..और आज के इस कार्यक्रम में वे इस कहावत का लाइव टेलीकास्ट देख रहे थे ! आयोजकों के तय किए गए विषय धरे के धरे रह गए. आखिर ब्लॉगर् किसी के निर्देशों को क्यों माने? हर व्यक्ति ने जिस विषय पर चाहा बोला, जो चाहा बोला! किसी के कुछ समझ में आया हो, न हो गरीब मच्छरों की समझ में कुछ नही आया.

शाम हुई, रात हुई. सारे दिन के थके हारे ब्लॉगर्स खर्राटे मार कर सो गए. उनके सपनों में लिफ़ाफ़ाबाद सम्मेलन की रिपोर्टिंग सम्बन्धी दाँवपेंच भरे आइडियाज़ आने लगे.मच्छर कोई ब्लॉगर तो थे नही जो सो जाते. उन्होने अपने कस्टमरों के सिर पर रोज़ की तरह लोरी गानी शुरू कर दी. आखिर रोज़ी-रोटी का सवाल था!

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नोट---@ "ब्लॉग बहस का प्लेटफार्म नहीं है", "बेनामी दस कदम आकर जाकर लड़खड़ा जाएगा", "एक भी मर्द नहीं है जो स्वीकार करे कि हम अपनी पत्नी को पीटते हैं",औरत बिना दुपट्टे के चलना चाहती है जैसे जुमले। . . .(बन्द करो कोई पीछे से कुंठासुर जैसा कुछ कह रहा है।)---पोस्ट का यह भाग गिरिजेश जी के ब्लॉग " एक आलसी का चिट्ठा" से साभार.
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Wednesday, October 21, 2009

धर्म

वो मेरा सबसे प्यारा दोस्त
जिसकी निगाहें
साफ़ एकदम,
जिसका दामन
पाक एकदम.
जिसने
हर मौक़े पर मदद की है मेरी
और
डूब कर सिर तक
निकाला है मुझे
गहरी नदी के पेट से
न जाने कितनी बार !
पर
आज मौक़ा मेरा आया है
चलो तोड़ डालें उसका सर
चलो जला डालें उसका घर

उसका धर्म मुझसे अलग है.

Sunday, October 18, 2009

ओबामा और गोवर्धन ब्राउन ने मनाई दीवाली










यूँ तो दीपपर्व हर वर्ष पूरी दुनिया में श्रद्धा, भक्ति और उल्लास के साथ मनाया जाता है पर इस बार की दीवाली कुछ और विशेष हुई जब वाइट हाउस में अमरीकी राष्ट्रपति ओबामा और 10,डाउनिंग स्ट्रीट,लन्दन में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री गॉर्डन ब्राउन ने वैदिक मंत्रोच्चार के बीच दीप प्रज्जवलित कर यहाँ उपस्थित हिन्दू, जैन, सिख और बौध समुदाय के लोगों को हर्षविभोर कर दिया. वाइट हाउस के ऐतिहासिक ईस्ट रूम में इस तरह के आयोजन का यह पहला मौका था.अमरीका में भारतीय राजदूत मीरा शंकर और अनेक गण्यमान उपस्थिति के बीच, ओबामा ने अपने सन्देश में कहा कि विश्व की इन महान आस्थाओं द्वारा मनाया जाने वाला दीपपर्व बुराई पर अच्छाई, अन्धकार पर प्रकाश और अधर्म पर धर्म की विजय का प्रतीक है. वाइट हाउस की इस ऐतिहासिक घटना को, अमरीका द्वारा उस देश मॆं, दीवाली को सरकारी मान्यता के रूप में देखा जा रहा है.ज्ञातव्य हो कि ओबामा का हनुमान प्रेम भी काफी चर्चित है और वे हनुमान मूर्ति को अपने साथ शुभांकर के रूप में सदा रखते हैं.

उधर लन्दन की 10, डाउनिंग स्ट्रीट में प्रधानमंत्री गॉर्डन ब्राउन द्वारा वैदिक मंत्रोच्चार के बीच राम की प्रतिमा के सामने दीप प्रज्ज्वलित करने का समाचार प्राप्त हुआ है.हालाँकि सरकारी तौर पर ब्रिटिश प्रधानमंत्री का यह पहला दीवाली आयोजन था पर गार्डन ब्राउन पहले भी इस तरह के आयोजनों में भाग लेते रहे हैं. दो साल पहले गोवर्धन पूजा में प्रतिभागिता के मौक़े पर, गेंदे की माला पहने, मस्तक पर लाल टीका लगाए गॉर्डन ब्राउन को ब्रिटेन के हिन्दू फोरम ने स्नेह से "गोवर्धन ब्राउन" उपनाम दिया जिसे ब्राउन ने आह्लादित होकर स्वीकार किया. अपने सन्देश में उन्होने ब्रिटेन के विकास में भारतीयों के योगदान को सराहते हुए कहा कि डाउनिंग स्ट्रीट के इस आयोजन से भारत और ब्रिटेन के बीच रिश्तों में मज़बूती आएगी और भाईचारा विकसित होगा.

Friday, October 16, 2009

मकानों के इस जंगल में दीपावली


इस बार पारिवारिक कारणों से दीपावली नही मना रही हूँ. पता नही क्यों आज याद आ रहा है वर्ष 1993..उस साल भी दीपावली नही मनाई थी.हुआ यह कि उस समय नई-नई नौकरी लगी थी.बनारस में पहली पोस्टिंग..और किसी अति-मह्त्वपूर्ण आयोजन की ज़िम्मेदारी मेरी थी. दीपावली पास ही थी. हालाँकि सन्दर्भित आयोजन दीवाली के बाद होना था पर निदेशक महोदय ने घर(लखनऊ)आने की अनुमति मेरे लाख अनुरोध पर भी नहीं दी थी.बहुत मलाल हुआ था कि सर ने दीपावली के लिए भी छुट्टी नही दी. उस समय कच्चा मन था. "यह सब नौकरी में आम बात है" इस बात की समझ तब तक नही विकसित हो पाई थी .बनारस में सिगरा की सम्पूर्णानन्द नगर कालोनी में, अपने कमरे में, दीवाली की शाम अकेले बैठ कर एक कविता लिखी थी वो आज आपके सम्मुख प्रस्तुत है.


सन्ध्या के सुरमई क्षणों में
मकानों के इस जंगल में
रह-रह कर जलते
बिजली के छोटे-छोटे बल्बों का स्पन्दन
याद दिला रहा है
कि आज दीपावली है.


हरे, नीले, सुरमई, गुलाबी..
जीवन के किसी भी रंग की
कोई खास अहमियत न हो जँहा,
संगमरमर की दूधिया फ़र्श पर सजी
रंगोली की लकीरों का गेरूई रंग
याद दिला रहा है
कि आज दीपावली है.


फुलझड़ियों की जगमगाहट
बर्तनों की चमचमाहट
पटाखों की गड़्गड़ाहट
और चूड़ियों की छनछनाहट के बीच
जब सब कुछ भूलता भूलता सा लगे
लक्ष्मी-पूजन का
गृहलक्षमी द्वारा आस्थापूर्वक श्रीगणेश
एकाएक याद दिला रहा है
कि आज दीपावली है.


प्रियजन से दूर
उपवन से दूर
अपनो से दूर
इस अजनबी से देश में
आँखों की एक कोर से दूसरे कोर तक फैले
गहरे समुद्र में,
बार-बार छलक आए
कुछ मोतियों का अपरिभाषित, अनाम रंग
बार बार याद दिला रहा है
कि सचमुच आज ही दीपावली है.

Monday, October 12, 2009

वे

कुर्सी के सापेक्ष

आला अफ़सर हैं वे,

मानवीय सम्वेदनाओं के सापेक्ष

चपरासी भी नही.

Wednesday, October 07, 2009

"ऐ मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया"

(बेगम अख्तर जयँती पर विशेष)






एक कमसिन सी लड्की को उसकी माँ किसी पीर के पास दुआ के वास्ते ले गई .पीर ने ग़ज़ल का एक दीवान लड्की के हाथ में देकर कोई एक पन्ना खोलने को कहा साथ ही यह भविष्यवाणी भी किया कि जो भी पन्ना खुलेगा उस पर लिखी ग़ज़ल गाकर लड्की बहुत नाम और यश पाएगी. लड्की पन्ना खोलती है, वहाँ लिखा है-----

“ दीवाना बनाना है तो दीवाना बना दे, वरना कहीं तक़दीर तमाशा न बना दे...”

दुनिया को अपने फ़न से दीवाना बनाने वाली यह लड्की और कोई नही बल्कि मल्लिका-ए-ग़ज़ल बेगम अख्तर थी. हिन्दुस्तान में क्लासिकी ग़ज़ल को अनोखी ऊँचाइयों तक पहुँचाने वाली बेगम अख्तर के बारे में कैफ़ी आज़मी कहा करते थे ----

"ग़ज़ल के दो मायने होते हैं--पहला ग़ज़ल और दूसरा बेगम अख्तर."

न केवल ग़ज़ल बल्कि ठुमरी और दादरा को अपनी आवाज़ से सजा कर एक नया कलेवर देने वाली बेगम अख्तर का बचपन का नाम बिब्बी था. उनका जन्म 7 अक्तूबर 1914 को फ़ैज़ाबाद के रीडगंज इलाक़े में मुश्तरीबाई के घर हुआ था. गाना मुश्तरीबाई के लिए आजीविका का साधन था पर वो बिब्बी को इस लाइन में नही डालना चाहती थीं. उन्होने बिब्बी का नाम मिशनरी स्कूल में लिखाया और पढाई में मन लगाने को कहा. बिब्बी बहुत शैतान थी. वहाँ एक दिन क्लास-टीचर कुर्सी पर बैठी इमला बोल रही थी, उनकी नागिन सी लम्बी चोटी नीचे लटक रही थी जो बिब्बी को बहुत पसन्द थी. जब सारी लडकियाँ ज़मीन पर बैठी स्लेट पर इमला लिख रही थीं, बिब्बी ने चुपके से कैंची निकाली और टीचर की चोटी का निचला हिस्सा काट कर अपने बस्ते में रख लिया. उसके बाद से बिब्बी कभी स्कूल नही गई.

संगीत से पहला प्यार 7 वर्ष की उम्र में थियेटर अभिनेत्री चन्दा का गाना सुनकर हुआ तो संगीत की प्रारम्भिक शिक्षा पटना के सारंगी नवाज़ उस्ताद इम्दाद खाँ से मिली. मंच पर अपना पहला कार्यक्रम बिब्बी ने 14 वर्ष की आयु में कलकत्ते में प्रस्तुत किया .इस कार्यक्रम से प्रभावित होकर मेगाफोन रिकार्ड कम्पनी ने बिब्बी का गाया पहला गाना रिकार्ड किया----

"तूने बुत-ए-हरजाई कुछ ऐसी अदा पाई, तकता है तेरी सूरत हर एक तमाशाई"

मेगाफोन कम्पनी के इस रिकार्ड ने ‘रिकार्ड’ धूम मचाई. चारो ओर बिब्बी की चर्चा होने लगी और इसी रिकार्ड से बिब्बी, बिब्बी से अख्तरीबाई ‘फ़ैज़ाबादी’ बन गई. उसके बाद अख्तरी ने पीछे पलट कर नही देखा. रिकार्ड कम्पनियों में उनके गानों को रिकार्ड करने की होड सी लग गई तो दूसरी ओर मंच पर उन्हे सुनने वालों की भीड के चलते हॉल छोटे पड्ने लगे. पटियाला घराने के अता मोहम्मद खाँ की तालीम ने उन्हे कठिन से कठिन मीड्, मुरकी, खटका , तानें बडी आसानी और लेने की सलाहियत बक्शी तो किराना घराने के अब्दुल वहीद खाँ ने उनके गायन को भाव प्रवणता प्रदान की. उस्ताद झन्डे खाँ साह्ब से भी अख्तरी बाई ने तालीम हासिल की.

उनकी गायकी जहाँ एक ओर चंचलता और शोखी से भरी है वही दूसरी ओर उसमें शास्त्रीयता और दिल को छू लेने वाली गहराइयाँ हैं. आवाज़ में ग़ज़ब का लोच, रंजकता, भाव अभिव्यक्ति के कैनवास को अनन्त रंगों से रंगने की क्षमता के कारण उनकी गाई ठुमरियाँ बेजोड हैं.

प्रसिद्ध संगीतविद जी.एन.जोशी 1984 में बेगम अख्तर पर लिखी अपनी किताब "डाउन द मेमोरी लेन" में लिखते हैं कि ठुमरी " कोयलिया मत कर पुकार, करेजवा मारे कटार" में 'कटार' का वार इतना गहरा है जिसे ताउम्र भूलना मुश्किल है.

सब कुछ था पर अख्तरी साहिबा औरत की सबसे बडी सफलता एक कामयाब बीवी होने में मानती थीं. इसी चाहत ने उनकी मुलाक़ात लखनऊ में बैरिस्टर इश्तियाक़ अहमद अब्बासी से करवाई. यह मुलाक़ात जल्द ही निक़ाह में बदल गई पर इसके बाद सामाजिक बन्धनों के चलते अख्तरी साहिबा को गाना छोड्ना पडा. गाना छोड्ना उनके लिए वैसा ही था जैसे एक मछली का पानी के बिना रहना.अख्तरी बीमार रहने लगी. उनकी गाई एक बहुत प्रसिद्ध ग़ज़ल है--

"ऐ मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया...."



डॉक्टरों की सलाह के आगे अब्बासी साहब को झुकना पडा और चार साल के लम्बे अन्तराल के बाद 25सितम्बर 1948 को बेगम साहिबा आकाशवाणी लखनऊ के स्टूडियो में रिकार्डिग कराने पहुँची. इसी रेडियो माइक ने उन्हे बेगम अख्तर के नाम से सारी दुनिया में मशहूर कर दिया.

बेगम साहिबा का सम्मान समाज के जानेमाने लोग करते थे.सरोजिनी नायडू बेगम अख्तर की बहुत बडी फ़ैन थीं तो कैफ़ी आज़मी भी अपनी ग़ज़लों को बेगम साहिबा की आवाज़ में सुन कर मन्त्रमुग्ध हो जाते थे. 1974 में बेगम साहिबा ने अपने जन्मदिन पर कैफ़ी आज़मी की यह ग़ज़ल गाई —

वो तेग़ मिल गई जिससे हुआ था क़त्ल मेरा,

किसी के हाथ का लेकिन वहाँ निशाँ नहीं मिलता.

तो कैफ़ी समेत वहाँ उपस्थित लोगों की आँखें नम हो आईं. किसी को नही मालूम था कि इस ग़ज़ल की लाइने इतनी जल्दी सच हो जाएँगी. 30अक्टूबर 1974 को बेगम साहिबा ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया मगर संगीत के आकाश का यह सूरज अपनी आवाज़ की रौशनी से दुनिया को रौशन करता रहेगा रहती दुनिया तक.

(7 अक्टूबर 2008 को दैनिक जागरण,लखनऊ से प्रकाशित)

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