Monday, December 27, 2010

बीत गया जो वर्ष




बीत गया जो वर्ष,विदा देने की बेला आई
नए वर्ष के स्वागत की अब बजने लगी बधाई.



क्या खोया क्या पाया इसका लिखने बैठी खाता
हर इक पल जो जैसा बीता याद हू-ब-हू आता,
शिकवे और शिकायत, रोना-हँसना, रिश्ता-नाता
कब क्या हुआ आज है जैसे वर्ष स्वयम बतलाता,
सुधि के मनकों को सहेज रखने की बेला आई
नव वर्ष के स्वागत की अब बजने लगी बधाई.



छोटे-छोटे यत्न जिन्होंने मन को दिया सहारा
खिली धूप के उन दिवसों में जब मन था अँधियारा,
कहने को जो अपने थे उन सबने किया किनारा
किसे बुलाती तुम्हे छोड़ कर मित्र तुम्हे ही पुकारा,
नेह-प्रेम के प्रति कृतज्ञता से आँखें भर आई
नव वर्ष के स्वागत की अब बजने लगी बधाई.



नए वर्ष में नए स्वप्न हों अंतर्मन में जोश नया
अभिलाषा के नव परिमल से परिपूरित परिवेश नया,
संकल्पों के नव किसलय हों सच्चे हों सम्बन्ध सदा
धीरज की सरिताओं के तट, हों अटूट तटबंध सदा,
खुशियों के अनुबन्ध आज लिखने की बेला आई
नव वर्ष के स्वागत की अब बजने लगी बधाई.

Tuesday, November 30, 2010

वायरस और दोस्त

(वर्ल्ड एड्स दिवस पर)





मेरे शरीर में रहता है एक वायरस
वैसे ही
जैसे अपने शरीर में रहता हूँ मैं खुद...
वैसे ही
जैसे रहते हैं यहाँ
खून,पानी,ऑक्सीजन,साँसें,
फेफड़े,गुर्दे,
चिंता ,
मुस्कुराहटें,
ह्ताशाएँ,निराशाएँ,आशाएँ...



लोग बताते हैं
वायरस बहुत खतरनाक है.
लोग खतरों से डरते हैं
इसीलिए लोग वायरस से डरते हैं
इसीलिए लोग मुझसे भी डरते हैं
क्यों की मेरे ही तो शरीर में वायरस रहता है...


मैं वायरस से नही डरता
जो हमेशा साथ रहे उससे क्या डरना?
वो खतरनाक है
पर वो हमेशा मेरे साथ रहेगा,
मेरी अंतिम साँस तक ...

वो मुझे छोड़ कर कभी नही जाएगा
जैसे मेरे सभी दोस्त एक-एक कर चले गए
मुझे छोड़ कर
वायरस के कारण...

मरने से भी ज्यादा
मुझे 'छोड़े जाने' से डर लगता है
इसीलिए मुझे
वायरस से नही
दोस्तों से डर लगता है.

Saturday, November 20, 2010

वो जो नदी है

(कार्तिक-पूर्णिमा पर )








वो जो नदी है

उसमे रहती हैं ढेर सारी मछलियां

जिन्हें बचपन में

आटे की गोलियाँ खिलाई थी मैंने

अपने बाबा के साथ

घाट की सबसे निचली सीढ़ी पर खड़े होकर .



वो जो नदी है

बसती हैं उसमे ढेर सारी डुबकियाँ

नाक बंद करके लगाई थी जो मैंने

गहरे पानी में

अपनी दादी का हाथ पकड़कर.



उसी नदी में बसती है

तैरने से पहले

छपाक से कूदने की न जाने कितनी आवाजें

नावों की हलचलें

कमर तक डूब कर सूर्य को दिए गए अर्घ्य

पियरी चढ़ाने की मन्नतें

तुलसी पूजा के बिम्ब

हर हर महादेव की गूँज

हरे पत्ते के दोनों में

पानी पर तिरते दीपक

और ढेर सारा पॉलिथीन.

Sunday, November 14, 2010

एक कविता : पत्थरों के नाम

(बाल दिवस पर )







यह कविता

घर के बर्तनों के नाम
धोते हैं जिन्हें छोटे छोटे हाथ हर रोज हमारे घरों में
गर्मी,बरसात या फिर कडकडाती ठंड में.

उन झाडुओं के नाम
जिन्हें मजबूती से पकड़ कर बुहारी जाती है संगमरमरी फर्श
और पूरी ताकत झोंक दी जाती है पोंछे से उसे चमकाने में
हर रोज दोनों जून
किसी एक जून पेट भरने की जुगाड़ में.

यह कविता नही है
चमचमाती प्लेटों में उपेक्षा से छोड़े गए
आलू के पराठों और पनीर सैंडविचों के नाम

यह कविता है
भिनभिनाती मक्खियों के बीच
कूड़े में पड़े बिस्कुटों, डबलरोटियों के नाम
जिन्हें परहेज़ नही है
किसी नन्हे पेट में नाश्ता बन कर जाने में.


यह कविता नही है
रंग बिरंगे बैगों, टिफिनों और स्कूलों के नाम
यह कविता है
जिंदगी की उन बदसूरत सच्चाइयों के नाम
जो बिना किसी एडमिशन पढ़ा डालती है
बहुत कुछ
बहुत कम समय में
बहुत कम उम्र में.


यह कविता नही है
नेहरु चाचा और गुलाबों के नाम
यह कविता है
मोहल्ले के
उन सभी चाचा,फूफा, मामा
और एकांत के नाम
जिसके बारे में जबान नही खुल पाती है
किसी भी
गुड़िया,पूनम, पिंकी और गरीब सुनीता की.


यह कविता सपनीले बचपन के सजीले मन के नाम नही
बल्कि
उन असंख्य पत्थरों के नाम
जिनसे मिल कर बने है दिल
हमारे
आपके
हम सबके.

Thursday, November 04, 2010

आओ दिया जला दें






इस दीवाली पर दीपों के बन्दनवार सजा दें
हर सूने मन के आंगन में आओ दिया जला दें.


सूनी गलियाँ सूनी सडकें सूने गलियारे हैं
सूना जीवन सूनी मांगें कितने अंधियारे हैं
आओ मिल इन अंधियारों को उजियारों का पता दें
हर सूने मन के आंगन में आओ दिया जला दें.


सुधि की तंग सुरंगों में चलो झांक हम आएँ
भूले बिछड़े संगी साथी सबको आज बुलाएँ
एक साथ सब मिल कर खाएं लड्डू खील बताशे
हर सूने मन के आंगन में आओ दिया जला दें.


चौखट के दीपक से करना इतनी अरज हमारी
रौशन रखना हर देहरी को घड़ी उमर भर सारी
खुशियों की बारात सजे और छूटें खूब पटाखे
हर सूने मन के आंगन में आओ दिया जला दें.

Friday, October 22, 2010

शक




शक-
एक ऐसी कीटनाशक दवा,

जिसके प्रयोग से-

कीटों के साथ-साथ
फसल भी
समूल नष्ट .

Friday, October 01, 2010

इक नया शिवाला इस देश में बना दें




आ गैरियत के परदे इक बार फिर उठा दें 
बिछड़ों को फिर मिला दें नक्शे दुई मिटा दें.

सूनी पड़ी हुई है मुद्दत से दिल की बस्ती 
आ इक नया शिवाला इस देश में बना दें

दुनिया के तीर्थों से ऊंचा हो अपना तीरथ
दामन-ए-आसमान से इसका कलस मिला दें

हर सुबह मिल के गाएं मंतर वो मीठे मीठे
सारे पुजारिओं को मय प्रीत की पिला दें

शक्ति भी शान्ति भी भक्तों के गीत में है 
धरती के बासियों की मुक्ति भी प्रीत में है.

आ गैरियत के परदे इक बार फिर उठा दें 
बिछड़ों को फिर मिला दें नक्शे दुई मिटा दें.
                                               ---अल्लामा इकबाल 
 

Monday, September 27, 2010

कुत्ता




उसने मुझे कुत्ता कहा
सबके सामने
चिल्ला कर
बीच सड़क पर.

मेरी वफ़ादारी की घोषणा
पूरी दुनिया के सामने
करना चाहता होगा...

Friday, September 10, 2010

विघ्नहर्ता : श्री अष्टविनायक

महाराष्ट्र में पुणे के समीप ऐतिहासिक महत्त्व के ८ प्राचीन गणेश मंदिर हैं. अष्टविनायक के यह पवित्र मंदिर २० से ११० किलोमीटर के क्षेत्र में स्थित है। इन मंदिरों का पौराणिक महत्व और इतिहास है। इनमें विराजित गणेश की प्रतिमाएं स्वयंभू मानी जाती है यानि यह स्वयं प्रगट हुई हैं। यह मानव निर्मित न होकर इनका स्वरुप प्राकृतिक है। हर प्रतिमा का स्वरुप एक-दूसरे से अलग है। इन पवित्र प्रतिमाओं के प्राप्त होने के क्रम अनुसार ही अष्टविनायक की यात्रा भी की जाती है। अष्ट विनायक की यह यात्रा मात्र धर्म लाभ ही नहीं बल्कि आध्यात्मिक सुख, मानसिक शांति और आनंद देती है। कहा जाता हैं कि इस यात्रा को करने से सभी मनोकामना पूरी होती हैं.

इस क्रम में सबसे पहले मोरगांव स्थित मोरेश्वर इसके बाद क्रमश: सिद्धटेक में सिद्धिविनायक, पाली स्थित बल्लालेश्वर, महाड स्थित वरदविनायक, थेऊर स्थित चिंतामणी, लेण्याद्री स्थित गिरिजात्मज, ओझर स्थित विघ्रेश्वर, रांजणगांव स्थित महागणपति की यात्रा की जाती है। इनमें ६ गणपति मंदिर पुणे जिले में तथा २ रायगढ़ जिले में स्थित हैं।


अष्टविनायक के हर गणेशजी को अपना एक नाम है और अपनी एक कहानी

मोरगांव - श्री मयूरेश्वर
मयूरेश्वर या मोरेश्वर का मंदिर मोरगांव में करहा नदी के किनारे स्थित है। यह महाराष्ट्र के पुणे में बारामती तालुका में स्थित है। यह क्षेत्र भूस्वानंद के नाम से भी जाना जाता है। जिसका अर्थ होता है सुख समृद्ध भूमि। इस क्षेत्र का मोर के समान आकार लिए हुए है। इसके अलावा यह क्षेत्र में बीते काल में बडी संख्या में मोर पाए जाते थे। इस कारण भी इस क्षेत्र का नाम मोरगांव प्रसिद्ध हुआ।

सिद्धाटेक - श्री सिद्धिविनायक
सिद्धटेक महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले की करजत तहसील में भीम नदी के किनारे स्थित एक छोटा सा गांव है। सिद्धटेक में अष्टविनायक में से एक सिद्धविनायक को परम शक्तिमान माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि यहां सिद्धटेक पर्वत था, जहां पर विष्णु ने तप द्वारा सिद्धि प्राप्त की थी।

थेऊर - श्री चिंतामणी
चिंतामणी गणेश का मंदिर महाराष्ट्र के पुणे जिले के हवेली तालुका में थेऊर नामक गांव में है। यह गांव मुलमुथा नदी के किनारे स्थित है। यहां गणेश चिंतामणी के नाम से प्रसिद्ध है। जिसका अर्थ है कि यह गणेश सारी चिंताओं को हर लेते हैं और मन को शांति प्रदान करते हैं।

ओझर - श्री विघ्नेश्वर
विघ्रेश्वर अष्टविनायक का मंदिर कुकदेश्वर नदी के किनारे ओझर नामक स्थान पर स्थित है। विघ्रेश्वर दैत्य को मारने के कारण ही इनका नाम विघ्रेश्वर विनायक हुआ। ऐसा माना जाता है कि तब से यहां भगवान श्री गणेश सभी विघ्रों को नष्ट करने वाले माने जाते हैं।

लेण्याद्री - श्री गिरिजात्मज
गिरिजात्मज अष्टविनायक मंदिर उत्तरी पुणे के लेण्याद्री गांव में स्थित है। यह कुकदी नदी के किनारे बसा है। गणेश पुराण अनुसार इस स्थान का जीरनापुर या लेखन पर्वत था। गिरिजात्मज का अर्थ बताया गया है माता पार्वती के पुत्र। गिरिजा माता पार्वती का ही एक नाम है और आत्मज का अर्थ होता है पुत्र। अष्टविनायक में यह एकमात्र मंदिर है। जो ऊंची पहाड़ी पर बुद्ध गुफा मंदिर में स्थित है।

पाली - श्री बल्लाळेश्वर
अष्टविनायक गणेश में बल्लालेश्वर गणेश ही एकमात्र ऐसे गणेश माने जाते हैं, जिनका नाम भक्त के नाम पर प्रसिद्ध है। यहां गणेश की प्रतिमा को ब्राह्मण की वेशभूषा पहनाई जाती है।

महड - श्री वरदविनायक
वरदविनायक गणेश का मंदिर महाराष्ट्र के रायगढ़ जिले के कोल्हापुर तालुका में एक सुंदर पर्वतीय गांव महाड में है। भक्तों की ऐसी श्रद्धा है की यहां वरदविनायक गणेश अपने नाम के समान ही सारी कामनाओं को पूरा होने का वरदान देते हैं। प्राचीन काल में यह स्थान भद्रक नाम से भी जाना जाता था। इस मंदिर में नंददीप नाम से एक दीपक निरंतर प्रज्जवलित है। इस दीप के बारे में माना जाता है कि यह सन १८९२ से लगातार प्रदीप्त है।

रांजणगांव – श्री महागणपति
महागणपति को अष्टविनायक में सबसे दिव्य और शक्तिशाली स्वरुप माना जाता है। यह अष्टभुजा, दशभुजा या द्वादशभुजा वाले माने जाते हैं। त्रिपुरासुर दैत्य को मारने के लिए गणपति ने यह रुप धारण किया। इसलिए इनका नाम त्रिपुरवेद महागणपति नाम से प्रसिद्ध हुआ।

Tuesday, August 31, 2010

पिता : एक जानवर




बहुत ग़ुस्से वाले थे पिताजी.

अथक प्रयास के बाद भी
बुआ की शादी तय न हो पाने पर हताश पिता जी

पैसों की तंगहाली पर
अम्मा के ताने सुन कर खीझते पिता जी

चाचा की नौकरी न लगवा पाने पर
दोषी ठहराए जाने से भड़कते पिताजी

हम भाई बहनों की फ़ीस समय से न जमा हो पाने पर
प्रिंसिपल का पत्र पढ़ते चिंतित पिताजी

घर की पिछली दीवार ढहने को है
मरम्मत के लिए अतिरिक्त पैसे के जुगाड़ से जूझते पिताजी

बहुत मेहनत करके भी
लोगों की आकाँक्षाएँ पूरी न कर पाने वाले चिड़चिड़े पिताजी

बहुत ग़ुस्से वाले थे पिताजी.

घर में सब लोग पिताजी से बहुत डरते थे.

पिता जी जब भी ग़ुस्सा होते थे
एक वाक्य ज़रूर कहते थे
हाँ मै जानवर हूँ
मुझमें भावनाएँ नहीं हैं
जितना बोझ चाहो लाद दो मेरी पीठ पर.

इन सबके बीच, बड़े होकर मैंने एक कविता लिखी

पिता
एक ऐसा जानवर
जिसकी नाक में
वात्सल्य की नकेल डाल कर
चाहे जहाँ बुला लो
चाहे जो करवा लो.

Tuesday, August 24, 2010

दीप बिना राखी का त्यौहार


बहुत याद आ रहा है उसका चेहरा. बड़े होकर भी कहाँ बदल पाया वो? ना ही चेहरा, न ही उसका बात करने का तरीका. पिछली बार जब उसके हाथ पर राखी बाँधी थी तो वो डायनिंग टेबल की कुर्सी पर बैठा था. सर पर रुमाल रख कर जब मैंने टीका लगाया था तो उसका झुक कर पैर छूना आज भी याद है. सगा भाई तो भगवान ने नहीं दिया पर बचपन से सबसे पहले उसी को राखी बांधी अतः भाई होने का अहसास कैसा होता है यह सबसे पहले उसी ने बताया. वैसे भी चाचा का बेटा सगे भाई से कहाँ अलग होता है. बचपन से लेकर उसके साथ बीते पल आज याद आ रहे हैं. १९९५ में किडनी ट्रांसप्लांट होने के लिए हस्पताल जाता मेरा भाई, अपनी बीमारी से पिछले १५ सालों से लगातार जूझता मेरा भाई... आखिर हार गया. रक्षा बंधन से ठीक २७ दिन पहले २७ जुलाई को.... बीमारी की हालत में भी वो कहता था की इस बार सारी बहनों से राखी बंधवाने ज़रूर जाऊंगा. पर ईश्वर को यह मंज़ूर नही था. "दीप" था मेरे भाई का नाम जो मुझसे १५-१६ साल छोटा था. आज दीप नहीं है.. दीप के बिना मन अन्धेरा होना तो स्वाभाविक ही है. आज हर भाई के हाथ पर राखी देख मन बहुत कचोट रहा है. प्यारा भाई याद आ रहा है. दीप नहीं है पर हम सबके लिए अपने बेटे शिखर को छोड़ गया. आज इस सूने रक्षाबन्धन पर शिखर के लिए यही कामना करती हूँ कि उसके जीवन में कभी कोई अन्धेरा न आए .

Sunday, August 15, 2010

माँ को मेरा नमन है !




         स्वतंत्रता-दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ



कौम के खादिम की है,

जागीर वन्दे मातरम्,

मुल्क के है वास्ते

अकसीर वन्दे मातरम्.



जालिमों को है उधर,

बन्दूक अपनी पे गुरूर,

है इधर हम बेकसों का,

तीर वन्दे मातरम्.



कत्ल कर हमको न

कातिल, तू हमारे खून से,

तेग पर हो जायेगा,

तहरीर वन्दे मातरम्.




फ़िक्र क्या जल्लाद ने गर,

कत्ल कर बांधी कमर,

रोक देगा जोर से,

शमशीर वन्दे मातरम्





जुल्म से गर कर दिया,

खामोश मुझको देखना,

बोल उठ्ठेगी मेरी

तस्वीर, वन्दे मातरम्.





सरजमीं इंग्लैंड की, हिल

जायेगी दो रोज में,

गर दिखाएगी कभी,

तासीर वन्दे मातरम्.





संतरी भी मुज्तरिब है,

जब कि हर झंकार में,

बोलती है जेल में,

जंजीर वन्दे मातरम्.



             (२)


 
सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है,


देखना है जोर कितना बाजुए कातिल में है ।



करता नहीं क्यों दुसरा कुछ बातचीत,

देखता हूँ मैं जिसे वो चुप तेरी महफिल मैं है ।



रहबर राहे मौहब्बत रह न जाना राह में

लज्जत-ऐ-सेहरा नवर्दी दूरिये-मंजिल में है ।



यों खड़ा मौकतल में कातिल कह रहा है बार-बार

क्या तमन्ना-ए-शहादत भी किसी के दिल में है ।



ऐ शहीदे-मुल्को-मिल्लत मैं तेरे ऊपर निसार

अब तेरी हिम्मत का चर्चा ग़ैर की महफिल में है ।



वक्त आने दे बता देंगे तुझे ऐ आसमां,

हम अभी से क्या बतायें क्या हमारे दिल में है ।



खींच कर लाई है सब को कत्ल होने की उम्मींद,

आशिकों का जमघट आज कूंचे-ऐ-कातिल में है ।



सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है,

देखना है जोर कितना बाजुए कातिल में है ।


                  (३)

सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी


बूढ़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी

गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी

दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी



चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी



इस स्वतंत्रता महायज्ञ में कई वीरवर आए काम

नाना धुंधूपंत, ताँतिया, चतुर अज़ीमुल्ला सरनाम

अहमदशाह मौलवी, ठाकुर कुँवरसिंह सैनिक अभिराम

भारत के इतिहास गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम



कानपूर के नाना की, मुँहबोली बहन छबीली थी

लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी

नाना के सँग पढ़ती थी वह, नाना के सँग खेली थी

बरछी ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी



वीर शिवाजी की गाथायें उसकी याद ज़बानी थी

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी



लक्ष्मी थी या दुर्गा थी, वह स्वयं वीरता की अवतार

देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार

नकली युद्ध व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार

सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना ये थे उसके प्रिय खिलवाड़



महाराष्टर कुल देवी उसकी भी आराध्य भवानी थी

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी



हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झांसी में

ब्याह हुआ रानी बन आयी लक्ष्मीबाई झांसी में

राजमहल में बजी बधाई खुशियाँ छायी झांसी में

सुघट बुंदेलों की विरुदावलि सी वह आयी झांसी में



चित्रा ने अर्जुन को पाया, शिव से मिली भवानी थी

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी



उदित हुआ सौभाग्य, मुदित महलों में उजयाली छायी

किंतु कालगति चुपके चुपके काली घटा घेर लायी

तीर चलाने वाले कर में उसे चूड़ियाँ कब भायी

रानी विधवा हुई, हाय विधि को भी नहीं दया आयी



निसंतान मरे राजाजी रानी शोक समानी थी

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी



बुझा दीप झाँसी का तब डलहौज़ी मन में हर्षाया

राज्य हड़प करने का उसने यह अच्छा अवसर पाया

फ़ौरन फौजें भेज दुर्ग पर अपना झंडा फहराया

लावारिस का वारिस बनकर ब्रिटिश राज्य झांसी आया



अश्रुपूर्ण रानी ने देखा झांसी हुई बिरानी थी

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी



अनुनय विनय नहीं सुनती है, विकट फिरंगी की माया

व्यापारी बन दया चाहता था जब यह भारत आया

डलहौज़ी ने पैर पसारे, अब तो पलट गई काया

राजाओं नव्वाबों को भी उसने पैरों ठुकराया



रानी दासी बनी, बनी यह दासी अब महरानी थी

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी



छिनी राजधानी दिल्ली की, लखनऊ छीना बातों बात

कैद पेशवा था बिठुर में, हुआ नागपुर का भी घात

उदैपुर, तंजौर, सतारा, कर्नाटक की कौन बिसात?

जबकि सिंध, पंजाब ब्रह्म पर अभी हुआ था वज्र-निपात



बंगाले, मद्रास आदि की भी तो वही कहानी थी

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी



रानी रोयीं रनवासों में, बेगम ग़म से थीं बेज़ार

उनके गहने कपड़े बिकते थे कलकत्ते के बाज़ार

सरे आम नीलाम छापते थे अंग्रेज़ों के अखबार

नागपूर के ज़ेवर ले लो लखनऊ के लो नौलख हार



यों परदे की इज़्ज़त परदेशी के हाथ बिकानी थी

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी



कुटियों में भी विषम वेदना, महलों में आहत अपमान

वीर सैनिकों के मन में था अपने पुरखों का अभिमान

नाना धुंधूपंत पेशवा जुटा रहा था सब सामान

बहिन छबीली ने रण चण्डी का कर दिया प्रकट आहवान



हुआ यज्ञ प्रारम्भ उन्हें तो सोई ज्योति जगानी थी

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी



महलों ने दी आग, झोंपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी

यह स्वतंत्रता की चिन्गारी अंतरतम से आई थी

झांसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थी

मेरठ, कानपूर, पटना ने भारी धूम मचाई थी



जबलपूर, कोल्हापूर में भी कुछ हलचल उकसानी थी

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी



इस स्वतंत्रता महायज्ञ में कई वीरवर आए काम

नाना धुंधूपंत, ताँतिया, चतुर अज़ीमुल्ला सरनाम

अहमदशाह मौलवी, ठाकुर कुँवरसिंह सैनिक अभिराम

भारत के इतिहास गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम



लेकिन आज जुर्म कहलाती उनकी जो कुरबानी थी

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी



इनकी गाथा छोड़, चले हम झाँसी के मैदानों में

जहाँ खड़ी है लक्ष्मीबाई मर्द बनी मर्दानों में

लेफ्टिनेंट वाकर आ पहुँचा, आगे बड़ा जवानों में

रानी ने तलवार खींच ली, हुया द्वन्द्ध असमानों में



ज़ख्मी होकर वाकर भागा, उसे अजब हैरानी थी

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी



रानी बढ़ी कालपी आयी, कर सौ मील निरंतर पार

घोड़ा थक कर गिरा भूमि पर गया स्वर्ग तत्काल सिधार

यमुना तट पर अंग्रेज़ों ने फिर खायी रानी से हार

विजयी रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार



अंग्रेज़ों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी राजधानी थी

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी



विजय मिली पर अंग्रेज़ों की, फिर सेना घिर आई थी

अबके जनरल स्मिथ सम्मुख था, उसने मुहँ की खाई थी

काना और मंदरा सखियाँ रानी के संग आई थी

युद्ध श्रेत्र में उन दोनों ने भारी मार मचाई थी



पर पीछे ह्यूरोज़ आ गया, हाय घिरी अब रानी थी

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी



तो भी रानी मार काट कर चलती बनी सैन्य के पार

किन्तु सामने नाला आया, था वह संकट विषम अपार

घोड़ा अड़ा नया घोड़ा था, इतने में आ गये सवार

रानी एक शत्रु बहुतेरे, होने लगे वार पर वार



घायल होकर गिरी सिंहनी उसे वीरगति पानी थी

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी



रानी गयी सिधार चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी

मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अधिकारी थी

अभी उम्र कुल तेइस की थी, मनुष नहीं अवतारी थी

हमको जीवित करने आयी, बन स्वतंत्रता नारी थी



दिखा गई पथ, सिखा गई हमको जो सीख सिखानी थी

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी



जाओ रानी याद रखेंगे हम कृतज्ञ भारतवासी

यह तेरा बलिदान जगायेगा स्वतंत्रता अविनाशी

होये चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फाँसी

हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे झांसी



तेरा स्मारक तू ही होगी, तू खुद अमिट निशानी थी

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

                                                 --सुभद्राकुमारी चौहान

     

Thursday, July 29, 2010

मॉनसून






कल तक नम थीं सिर्फ आँखें
आज दिल भी नम है.
कोई मॉनसून आ पहुंचा है मुझ तक
शायद तुम से टकराने के बाद ....

Sunday, July 04, 2010

पहली फुहार के संग सुनिए राग मियां मल्हार

(गायक कलाकार पद्मभूषण पंडित छन्नू लाल मिश्र)




इतने महीनों की चिलचिलाती गर्मी के बात आखिर मानसून की आमद दिखी और बादलों से कुछ बूंदे धरती पर पहुँची . पहली बारिश, हर ले आपके मन की हर तपिश... इस कामना के साथ प्रस्तुत है कुछ काव्य पंक्तियाँ और मेरे पूज्य गुरूजी पद्मभूषण पंडित छन्नू लाल मिश्र जी का गाया राग मियां मल्हार . . पहली फुहार पर इससे अच्छा उपहार और क्या हो सकता है भला एक ब्लॉगर की ओर से !!! आशा है गुरूजी की आवाज़ आपको रससिक्त करने में सफल होगी.

ओ वर्षा के पहले बादल
मन की गति जैसे तुम चंचल
चंचल और चपल .


पहली वर्षा बादल तुम पहले
प्रथम प्रेम आसक्ति प्रथम
प्रिय वियोग का अवसर पहला
कैसे समझाऊँ मन



उड़ कर दूर दूर तुम जाते
छू कर आते उनका द्वार
सुधि लाते उनको ना लाते
सूना मन का आँगन.



ओ वर्षा के पहले बादल
मन की गति जैसे तुम चंचल
चंचल और चपल .



पद्मभूषण पंडित छन्नू लाल मिश्र जी का गाया राग मियां मल्हार सुनने के लिए यहाँ क्लिक करें .


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Friday, June 18, 2010

एक अच्छी सी पोस्ट




बड़े दिनों से ब्लॉग पर कोइ पोस्ट नहीं लिखी. आखिरी पोस्ट १८ अप्रैल को लिखी थी इस हिसाब से आज पूरे दो महीने हो गए . इतना लम्बा गैप तो आज तक मेरे ब्लॉग लेखन में कभी नहीं आया फिर यह कैसे हुआ ? कारण तो मुझे भी ठीक से समझ नहीं आ रहा पर कुल मिला कर विचार शून्यता का गहरा माहौल मेरे अन्दर जाने कहाँ से सिमट आया था और मै उससे निकल नहीं पा रही थी.विचार शून्यता की स्थिति बहुत खतरनाक होती है. यह अवसाद से भी अधिक डरावनी होती है. एकांत श्रीवास्तव की एक कविता में कहा भी गया है की आदमी जब कुछ नहीं सोचता ,कुछ नहीं कहता तो वो मर जाता है.

थोड़ा मुड़ कर पीछे देखती हूँ तो एक बहुत प्यारा मित्र दिखाई देता है, बचपन का सहपाठी, पढने में बहुत शार्प था, परम देश-भक्त, ऐसा राष्ट्रवादी जिसकी हर सांस सिर्फ देश के लिए ही हुआ करती थी. हम सब साथी विदेश जाने के नाम भर से ही बच्चों की तरह मचल जाते थे पर वो बड़े गर्व से कहा करता था की मैं तो देश छोड़ कर स्वर्ग भी नहीं जाऊंगा और हम सब लोग खिलखिला कर हंस पड़ते थे. यूनिवेर्सिटी की वो कैंटीन ऐसे ही तमाम बातों की साक्षी हुआ करती थी.

हम सभी साथी समय बीतने के साथ जीवन में अपने -अपने हिसाब से सेट हो गए पर अपने उस मित्र को आज तक नहीं भूल पाई थी. संपर्क छूट चुका था पर उसकी बातें अभी भी मानो ज़ेहन में घूमा करती थी."देश के प्रति अटूट प्रेम होगा तभी देश बदला जा सकता है .. और देश बदलेगा जब राष्ट्रवादी ताकतें एक होंगी ...और उस दिन भारत विश्व में नंबर वन होगा ...."

अभी हाल में ही उसके पिता जी से मुलाक़ात हुई तो पता चला जनाब अमरीका में जा बसे हैं.देश तो दूर अपने घरवालो, यहाँ तक की माता पिता की भी सुध भूल बैठे हैं.पिछले साल माँ की मृत्यु पर तो वो जनाब भारत नहीं ही आ पाए थे अब एक साल बाद माँ की बरसी पर भी आने की कोई जुगत बेचारे नहीं लगा पाए है अतः सब कुछ पिताजी को ही अकेले करना पड़ रहा है.केवल एक बेटा ही जो है संतान के नाम पर इन बेचारों का!सुन कर सन्न रह गयी. खून खौल गया. ऐसी कहानिया सिर्फ पत्रिकाओं में ही पढी थी. आज जब इसका लाइव शो देखा तो पैर के नीचे की ज़मीन खिसकती सी लगी. शाम को एक लम्बा सा ईमेल उस महापुरुष को लिखा और जितनी गालियाँ दे सकती थी दी. सोचा था साब जी माफी ज़रूर मांगेगे पर साब जी ने मुझे पहचानने से भी इंकार कर दिया. मन खिन्न हो उठा .कुछ और मित्रों ने भी संपर्क की कोशिश की पर उधर से कोइ प्रतिक्रिया नहीं मिली.वो इंसान कितना बड़ा कायर है ! कितना बड़ा पलायनवादी ! मुंह छुपाये घूम रहा है.... पर सबसे भागने वाला इंसान क्या अपने आप से भी भाग सकता है ? उसके मन में ज़रूर गिल्ट होगा वर्ना वो हम सबसे बचता क्यों घूमता?हमारा सामना करता और अपना स्पष्टीकरण देता!


बस यही कुछ था जिसने मन को अजीब सी हालत में लाकर खड़ा कर दिया था. मन बिलकुल खाली घर जैसा हो गया था. विचार जैसे रूठ गए थे. आज दो महीने बाद सोचा था एक अच्छी सी पोस्ट लिखूँगी पर लिखने बैठी तो सच्चाई
जैसे अपने आप लिखती चली गयी.

मन अभी भी उदास है पर पता नही क्यूं मन में विश्वास है की वो मित्र ज़रूर एक दिन देश वापस आयेगा हम मित्रो की खातिर न सही, देश की खातिर न सही पर अकेले बूढ़े पिता की आँखों में बसने वाली नमी की खातिर वो ज़रूर वापस आयेगा और आकर देश की मिट्टी से माफी मांगेगा...अपने संस्कारों को भूल जाने के अपराध की माफी .....

इतने बड़े अंतराल के लिए आप सबसे दूर रहने की माफी मै भी मांगती हूँ पर आप यह ज़रूर बताइयेगा की क्या मेरी यह पोस्ट एक अच्छी सी पोस्ट की श्रेणी में आती है?

Sunday, April 18, 2010

नर्सरी का दर्द








मैं
नर्सरी की भूमि हूँ.

मेरी कोख में
अनेक बीज बोए गए
अनेक बार

किंतु ज्यों ही
पनपे थे वे थोड़ा
कि
उखाड़ कर बो दिया गया
उन्हे
अन्यत्र कहीं

मेरी गोद सदा सूनी
जबकि
मैं बाँझ नहीं.

Thursday, April 08, 2010

मशीनी ज़िन्दगी


दिन-रात
दौड़ती भागती
मेरी मशीनी ज़िन्दगी में,
मोबिल ऑयल हो तुम !
बेहद ज़रूरी,
नितांत आवश्यक.

Tuesday, March 23, 2010

श्री रामचँद्र कृपालु भजु मन

श्री रामचँद्र कृपालु भजु मन हरण भवभय दारुणम्।
नवकंज-लोचन, कंज-मुख, कर कंज, पद कंजारुणम्।।

कंदर्प अगणित अमित छबि, नवनील-नीरद सुंदरम्।
पट पीत मानहु तड़ित रुचि शुचि नौमि जनक-सुतानरम्।।

भजु दीनबंधु दिनेश दानव-दैत्य-वंश-निकंदनम्।
रघुनंद आनँदकंद कोशलचंद दशरथ-नंदनम्।।

सिर मुकुट कुंडल तिलक चारु उदारु अंग विभूषणम्।
आजानुभुज शर-चाप-धर, संग्राम-जित-खर-दूषणम्।।

इति वदति तुलसीदास शंकर-शेष-मुनि-मन रंजनम्।
मम् हृदय-कंज-निवास कुरु, कामादि खल-दल-गंजनम्।।

मनु जाहि राचेउ निलिहि सो बरु सहज सुंदर साँवरो।
करुना निधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो।।

एहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय सहित हियँ हरषीं अली।
तुलसी भवानिह पूजि पुनि पुनि मुदित मन मंदिर चली।।

सोरठा-जानि गौरि अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि।
मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे।।

Tuesday, March 16, 2010

जगदम्बा के नौ रूप









जगत जननी जगदम्बा के नौ रूप:

1. शैलपुत्री 2. ब्रह्मचारिणी 3. चन्द्रघण्टा 4. कूष्मांडा 5. स्कन्दमाता 6. कात्यायनी 7. कालरात्रि 8. महागौरी 9. सिद्धिदात्री।


माँ दुर्गा के नवरूपों की उपासना के मंत्र


1. शैलपुत्री
वन्दे वाञ्छितलाभाय चन्द्रार्धकृतशेखराम्‌ ।
वृषारुढां शूलधरां शैलपुत्रीं यशस्विनीम्‌ ॥

2. ब्रह्मचारिणी
दधाना करपद्माभ्यामक्षमालाकमण्डलू ।
देवी प्रसीदतु मयि ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा ॥

3. चन्द्रघण्टा
पिण्डजप्रवरारुढा चण्डकोपास्त्रकैर्युता ।
प्रसादं तनुते मह्यां चन्द्रघण्टेति विश्रुता ॥

4. कूष्मांडा
सुरासम्पूर्णकलशं रुधिराप्लुतमेव च ।
दधाना हस्तपद्माभ्यां कूष्माण्डा शुभदास्तु मे ॥

5. स्कन्दमाता
सिंहासनगता नित्यं पद्माश्रितकरद्वया ।
शुभदास्तु सदा देवी स्कन्दमाता यशस्विनी ॥

6. कात्यायनी
चन्द्रहासोज्वलकरा शार्दूलवरवाहना ।
कात्यायनी शुभं दघाद्देवी दानवघातिनी ॥

7. कालरात्रि
एकवेणी जपाकर्णपूरा नग्ना खरास्थिता ।
लम्बोष्टी कर्णिकाकर्णी तैलाभ्यक्तशरीरिणी ॥
वामपादोल्लसल्लोहलताकण्टकभूषणा ।
वर्धनमूर्धध्वजा कृष्णा कालरात्रिर्भयङ्करी ॥


8. महागौरी
श्वेते वृषे समारुढा श्वेताम्बरधरा शुचिः ।
महागौरी शुभं दघान्महादेवप्रमोददा ॥

9. सिद्धिदात्री
सिद्धगन्धर्वयक्षाघैरसुरैरमरैरपि ।
सेव्यमाना सदा भूयात्‌ सिद्धिदा सिद्धिदायिनी ॥

Monday, March 08, 2010

मेरा घर

(अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष)




बचपन से सुना था

माँ के मुँह से

कि

यह घर मेरा नहीं है

जब मैं बड़ी हो जाऊँगी

तो मुझे

शादी होकर जाना है

अपने घर.



शादी के बाद

ससुराल में सुना करती हूँ

जब तब...

अपने घर से क्या लेकर आई है

जो यहाँ राज करेगी?

यह तेरा घर नही है,

जो अपनी चलाना चाहती है...

यहाँ वही होगा जो हम चाहेंगे,

यह हमारा घर है, हमारा !

कुछ समझी?

Wednesday, March 03, 2010

बजट





देश का बजट बनाते हो
हर साल
कीमते बढ़ती हैं चीज़ों की
हर साल.


एक बार तो बनाओ
ऐसा बजट कि
कुछ कीमतें बढें लड़कियों की भी..

मिट्टी के मोल भी नहीं खरीद रहा जिन्हे
विवाह के बाज़ार में कोई !


विवाह के इस भव्य बाज़ार में
लड़कों की धुँआधार बिक्री से
चकराने लगा है सिर अब...

अरे एक बार तो मौक़ा दो
लड़कियाँ भी चख लें स्वाद
बिकने के सुख का !


घबराओ नहीं
इसमें ग़लत कुछ भी नहीं..

ऐसा करना पूर्ण वैधानिक होगा
क्यों कि
लड़के और लड़की में
कोई अंतर न रखने का आदेश
तो स्वयँ
देश के सम्विधान ने दे रखा है !

Sunday, February 28, 2010

देख बहारें होली की






जब फागुन रंग झमकते हों
तब देख बहारें होली की

परियों के रंग दमकते हों
खूँ शीशे जाम छलकते हों
महबूब नशे में छकते हों
तब देख बहारें होली की

नाच रंगीली परियों का
कुछ भीगी तानें होली की
कुछ तबले खड़कें रंग भरे
कुछ घुँघरू ताल छनकते हों
तब देख बहारें होली की

मुँह लाल गुलाबी आँखें हों
और हाथों में पिचकारी हो
उस रंग भरी पिचकारी को
अंगिया पर तककर मारी हो
सीनों से रंग ढलकते हों
तब देख बहारें होली की

जब फागुन रंग झमकते हों
तब देख बहारें होली की

- नज़ीर अकबराबादी








बहुत दिन बाद कोयल
पास आकर बोली है
पवन ने आके धीरे से
कली की गाँठ खोली है.

लगी है कैरियां आमों में
महुओं ने लिए कूचे,
गुलाबों ने कहा हँस के
हवा से अब तो होली है.

-त्रिलोचन





गले मुझको लगा लो ए दिलदार होली में
बुझे दिल की लगी भी तो ए यार होली में.

नहीं यह है गुलाले सुर्ख़ उड़ता हर जगह प्यारे,
ये आशिक ही है उमड़ी आहें आतिशबार होली में.

गुलाबी गाल पर कुछ रंग मुझको भी जमाने दो,
मनाने दो मुझे भी जानेमन त्योहार होली में.

है रंगत जाफ़रानी रुख़ अबीरी कुमकुम कुछ है,
बने हो ख़ुद ही होली तुम ए दिलदार होली में.

रसा गर जामे-मय ग़ैरों को देते हो तो मुझको भी,
नशीली आँख दिखाकर करो सरशार होली में.

-भारतेन्दु हरिश्चन्द्र


Monday, February 22, 2010

सूरज और माचिस






सूरज की लपटों से

मैं निकाल लाई

अपना घरौंदा सुरक्षित,


अब माचिस की इक तीली

मेरा आशियाना जलाने को है.

Sunday, February 14, 2010

प्यार का वायरस





(वैलेंटाइन-डे पर विशेष)


तुम्हारे प्यार के वायरस
के अटैक से
सुनहला ज़ुकाम हो गया है
मेरे मन को


और

बार-बार आने वाली
मेरी छींकों की आवाज़ से
गूँजने लगी है दुनिया
सच कहते है न
प्यार छुपाए नहीं छुपता!!!

Sunday, February 07, 2010

तिनका-तिनका बिखर कर




यह सच है

कि जब भी मेरे अपनों ने

मेरे बहुत अपनों ने आघात किया

तिनका-तिनका बिखर गई मैं

अनगिनत दिशाओं में

और

अनगिनत दर्द उपजे

मेरे मन के अनगिनत कोनों से...



पर यह भी सच है

कि

जहाँ-जहाँ गिरे

यह अनगिनत तिनके

हमेशा ही अंकुर फूटे

नए-नए पौधों के...



सृष्टि रचने की अपनी

शक्ति और क्षमता का

अहसास हुआ मुझे

तिनका-तिनका बिखर कर

तुम्हारे आघात लगने के बाद ही.

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