यह सच है
कि जब भी मेरे अपनों ने
मेरे बहुत अपनों ने आघात किया
तिनका-तिनका बिखर गई मैं
अनगिनत दिशाओं में
और
अनगिनत दर्द उपजे
मेरे मन के अनगिनत कोनों से...
पर यह भी सच है
कि
जहाँ-जहाँ गिरे
यह अनगिनत तिनके
हमेशा ही अंकुर फूटे
नए-नए पौधों के...
सृष्टि रचने की अपनी
शक्ति और क्षमता का
अहसास हुआ मुझे
तिनका-तिनका बिखर कर
तुम्हारे आघात लगने के बाद ही.
17 comments:
मन की उलाहने अपने आप में संपूर्ण होते ही हैं.
"जब भी मेरे अपनों ने
मेरे बहुत अपनों ने आघात किया"
परायों की मार आसानी से सहा जा सकता है कि अपनों की मार का असहनीय आघात करती है। किन्तु परायों से अधिक अपने ही मारने वाले होते हैं।
हमें तो अपनों ने मारा गैरों में कहाँ दम था
मेरी कश्ती वहाँ डूबी जहाँ पानी कम था
अपनों के शूल बहुत अन्दर तक आघात कर देते हैं....
दी.... यह कविता बहुत अच्छी लगी....
मीनू जी दुनिया का दस्तूर ही कुछ ऐसा है लेकिन शायद इसीलिए हम इंसान हैं वक्त कैसा भी हो कट जाता है
सुन्दर रचना
सृष्टि रचने की अपनी
शक्ति और क्षमता का
आभास हुआ मुझे
तिनका-तिनका बिखर कर
तुम्हारे आघात लगने के बाद ही.
कभी कभी चोट लगना भी कितना ज़रूरी होता है ....... अपनो का व्यवहार नये विद्रोह, नयी सोच और अपने धरातल को मजबूती से पकड़ने की प्रेरणा देता है ......... बहुत अच्छा लिखा है .......
अपनों का आघात ही दर्द देता है...सुन्दर तरीके से संजोया ये दर्द भी.....बहुत खूब
पर यह भी सच है
कि
जहाँ-जहाँ गिरे
यह अनगिनत तिनके
हमेशा ही अंकुर फूटे
नए-नए पौधों के...
मीनू जी अद्भुत क्षमता का विकास हुया है ये आघात सही मे हमे अपने अन्दर झाँकने और अपनी क्षमता देखने पर मजबूर कर देते हैं । मुझे आज जितने भी ब्लाग पढे ये रचना सब से अधिक अच्छी लगी। शुभकामनायें
Meenu ji,
bahut hee marmasparshee lagee apakee yah rachana.
Poonam
सृष्टि रचने की अपनी
शक्ति और क्षमता का
आभास हुआ मुझे
तिनका-तिनका बिखर कर
तुम्हारे आघात लगने के बाद ही.
Bahut sundar !
सृष्टि रचने की अपनी
शक्ति और क्षमता का
आभास हुआ मुझे
तिनका-तिनका बिखर कर
तुम्हारे आघात लगने के बाद ही.
nice
waah !
anand aaya,,,,,,,,,,,badhaai !
वृक्ष कबहूँ न फल भखे नदी न संचय नीर
परमारथ के कारने साधुन धरा शरीर
मुझे ये पंक्तियाँ कविता पढ़ याद हो आयीं
बहुत बेहतरीन अभिव्यक्ति और मनोभावों का उम्दा चित्रण.
रचनाधर्मिता की भावभूमि रिक्तता ही है ।
आभार ।
सृजन की प्रक्रिया का हेतु संहार ही है..टूटने के बाद सँवरना सृष्टि की सार्वजनीनता की दुंदुभि है..
प्रविष्टि का आभार । सुन्दर रचना ।
यह सच है
कि जब भी मेरे अपनों ने
मेरे बहुत अपनों ने आघात किया
तिनका-तिनका बिखर गई मैं
अनगिनत दिशाओं में
और
अनगिनत दर्द उपजे
मेरे मन के अनगिनत कोनों से...
बहुत सार्थक रचना,सच कहा अपनों का दिया हुआ आघात बहुत गहराई तक वार करता है और जीवन पर्यन्त चलता है मेरी भी इसी आशय की एक पोस्ट लगभग पूरी हो गयी है समय मिलते ही पोस्ट करुँगी
सृजन के अल्प-उद्घाटित आयाम को शब्द देने के लिए आभार।
सृजन की यातना और यातना से सृजन - गहन सम्प्रेषण
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