Sunday, February 07, 2010

तिनका-तिनका बिखर कर




यह सच है

कि जब भी मेरे अपनों ने

मेरे बहुत अपनों ने आघात किया

तिनका-तिनका बिखर गई मैं

अनगिनत दिशाओं में

और

अनगिनत दर्द उपजे

मेरे मन के अनगिनत कोनों से...



पर यह भी सच है

कि

जहाँ-जहाँ गिरे

यह अनगिनत तिनके

हमेशा ही अंकुर फूटे

नए-नए पौधों के...



सृष्टि रचने की अपनी

शक्ति और क्षमता का

अहसास हुआ मुझे

तिनका-तिनका बिखर कर

तुम्हारे आघात लगने के बाद ही.

17 comments:

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून said...

मन की उलाहने अपने आप में संपूर्ण होते ही हैं.

Unknown said...

"जब भी मेरे अपनों ने
मेरे बहुत अपनों ने आघात किया"

परायों की मार आसानी से सहा जा सकता है कि अपनों की मार का असहनीय आघात करती है। किन्तु परायों से अधिक अपने ही मारने वाले होते हैं।

हमें तो अपनों ने मारा गैरों में कहाँ दम था
मेरी कश्ती वहाँ डूबी जहाँ पानी कम था

Mahfooz ali said...

अपनों के शूल बहुत अन्दर तक आघात कर देते हैं....

दी.... यह कविता बहुत अच्छी लगी....

Mukul said...

मीनू जी दुनिया का दस्तूर ही कुछ ऐसा है लेकिन शायद इसीलिए हम इंसान हैं वक्त कैसा भी हो कट जाता है
सुन्दर रचना

दिगम्बर नासवा said...

सृष्टि रचने की अपनी
शक्ति और क्षमता का
आभास हुआ मुझे
तिनका-तिनका बिखर कर
तुम्हारे आघात लगने के बाद ही.

कभी कभी चोट लगना भी कितना ज़रूरी होता है ....... अपनो का व्यवहार नये विद्रोह, नयी सोच और अपने धरातल को मजबूती से पकड़ने की प्रेरणा देता है ......... बहुत अच्छा लिखा है .......

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

अपनों का आघात ही दर्द देता है...सुन्दर तरीके से संजोया ये दर्द भी.....बहुत खूब

निर्मला कपिला said...

पर यह भी सच है

कि

जहाँ-जहाँ गिरे

यह अनगिनत तिनके

हमेशा ही अंकुर फूटे

नए-नए पौधों के...
मीनू जी अद्भुत क्षमता का विकास हुया है ये आघात सही मे हमे अपने अन्दर झाँकने और अपनी क्षमता देखने पर मजबूर कर देते हैं । मुझे आज जितने भी ब्लाग पढे ये रचना सब से अधिक अच्छी लगी। शुभकामनायें

पूनम श्रीवास्तव said...

Meenu ji,
bahut hee marmasparshee lagee apakee yah rachana.
Poonam

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

सृष्टि रचने की अपनी

शक्ति और क्षमता का

आभास हुआ मुझे

तिनका-तिनका बिखर कर

तुम्हारे आघात लगने के बाद ही.

Bahut sundar !

Arun sathi said...

सृष्टि रचने की अपनी

शक्ति और क्षमता का

आभास हुआ मुझे

तिनका-तिनका बिखर कर

तुम्हारे आघात लगने के बाद ही.
nice

Unknown said...

waah !

anand aaya,,,,,,,,,,,badhaai !

Arvind Mishra said...

वृक्ष कबहूँ न फल भखे नदी न संचय नीर
परमारथ के कारने साधुन धरा शरीर
मुझे ये पंक्तियाँ कविता पढ़ याद हो आयीं

Udan Tashtari said...

बहुत बेहतरीन अभिव्यक्ति और मनोभावों का उम्दा चित्रण.

हेमन्त कुमार said...

रचनाधर्मिता की भावभूमि रिक्तता ही है ।
आभार ।

Himanshu Pandey said...

सृजन की प्रक्रिया का हेतु संहार ही है..टूटने के बाद सँवरना सृष्टि की सार्वजनीनता की दुंदुभि है..
प्रविष्टि का आभार । सुन्दर रचना ।

रचना दीक्षित said...

यह सच है

कि जब भी मेरे अपनों ने

मेरे बहुत अपनों ने आघात किया

तिनका-तिनका बिखर गई मैं

अनगिनत दिशाओं में

और

अनगिनत दर्द उपजे

मेरे मन के अनगिनत कोनों से...



बहुत सार्थक रचना,सच कहा अपनों का दिया हुआ आघात बहुत गहराई तक वार करता है और जीवन पर्यन्त चलता है मेरी भी इसी आशय की एक पोस्ट लगभग पूरी हो गयी है समय मिलते ही पोस्ट करुँगी

गिरिजेश राव, Girijesh Rao said...

सृजन के अल्प-उद्घाटित आयाम को शब्द देने के लिए आभार।
सृजन की यातना और यातना से सृजन - गहन सम्प्रेषण

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