Tuesday, August 31, 2010
पिता : एक जानवर
बहुत ग़ुस्से वाले थे पिताजी.
अथक प्रयास के बाद भी
बुआ की शादी तय न हो पाने पर हताश पिता जी
पैसों की तंगहाली पर
अम्मा के ताने सुन कर खीझते पिता जी
चाचा की नौकरी न लगवा पाने पर
दोषी ठहराए जाने से भड़कते पिताजी
हम भाई बहनों की फ़ीस समय से न जमा हो पाने पर
प्रिंसिपल का पत्र पढ़ते चिंतित पिताजी
घर की पिछली दीवार ढहने को है
मरम्मत के लिए अतिरिक्त पैसे के जुगाड़ से जूझते पिताजी
बहुत मेहनत करके भी
लोगों की आकाँक्षाएँ पूरी न कर पाने वाले चिड़चिड़े पिताजी
बहुत ग़ुस्से वाले थे पिताजी.
घर में सब लोग पिताजी से बहुत डरते थे.
पिता जी जब भी ग़ुस्सा होते थे
एक वाक्य ज़रूर कहते थे
हाँ मै जानवर हूँ
मुझमें भावनाएँ नहीं हैं
जितना बोझ चाहो लाद दो मेरी पीठ पर.
इन सबके बीच, बड़े होकर मैंने एक कविता लिखी
पिता
एक ऐसा जानवर
जिसकी नाक में
वात्सल्य की नकेल डाल कर
चाहे जहाँ बुला लो
चाहे जो करवा लो.
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21 comments:
ओह ,भाव प्रवण !
बहुत मार्मिक और संवेदनशील कविता।
मीनूजी !
बहुत ही उम्दा कविता............उत्तम रचना ........
परन्तु मुझे लगता है जानवर शब्द का अर्थ आपने पशु मान लिया है, यह ठीक नहीं है.......वास्तव में जानवर तो हम सभी हैं ...जिसमे भी जान है और जब तक जान है वो जानवर ही है ..जानवर अर्थात प्राणी...
क्षमा करें........आपकी इतनी उम्दा कविता में यदि जानवर की जगह पशु या हैवान शब्द का प्रयोग हो तो बेहतर होगा ..ऐसा मेरा निवेदन है
"जिसकी नाक में
वात्सल्य की नकेल डाल कर
चाहे जहाँ बुला लो
चाहे जो करवा लो"
बहुत सुन्दर बेटे.
ओह नहीं
आपकी कविता ने बहुत लोगों को अपने पिताओं की याद दिला दी । बेहद संवेदनशील रचना !!!!
बहुत ही मार्मिक और दिल को छु लेने वाली रचना है .....
http://thodamuskurakardekho.blogspot.com/
मार्मिक कविता , लीक से हटके ,
मैं समझता हूँ पिताजी ऐसे थे नहीं, हालात ने बना दिया था !
बेहद संवेदनशील रचना!!
वात्सल्य और मोह वशीभुत
जानवर की तरह बोझ ढोता पिता!!
उम्दा कविता। उम्दा बोध।
बहुत भावपूर्ण..पिता जी को नमन!
दिल को छू गयी
ak pita ko sahi ukera hai aapnay
क्या बात है?
………….
जिनके आने से बढ़ गई रौनक..
...एक बार फिरसे आभार व्यक्त करता हूँ।
* * * आदरणीया मीनू खरे जी * * *
जन्म दिवस पर हार्दिक बधाई एवम् शुभकामनाएं !
शुभाकांक्षी
राजेन्द्र स्वर्णकार
आदरणीया मीनूजी
एक मध्यमवर्गीय परिवार के मुखिया की स्थिति का सटीक वर्णन है आपकी कविता में ।
पिता क्यों झुंझलाते हैं , गुस्सा होते हैं …
उनकी असामर्थ्य , विवशता को पारीवारिक अपेक्षाओं - आवश्यकताओं के कारण प्रायः नज़रंदाज़ ही किया जाता है ।
बहुत भावपूर्ण , लेकिन यथार्थपरक कविता !
कोटिशः बधाई !
बहुत बहुत बहुत बधाई आपको जन्मदिन की भी …
- राजेन्द्र स्वर्णकार
मीनू जी,
आरज़ू चाँद सी निखर जाए, ज़िंदगी रौशनी से भर जाए।
बारिशें हों वहाँ पे खुशियों की, जिस तरफ आपकी नज़र जाए।
जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएँ।
………….
गणेशोत्सव: क्या आप तैयार हैं?
एक बेबस और तंगहाल पिता के संघर्ष और अन्तर्द्वन्द को आपने बहुत बेहतर ढंग से शब्दों में बांधा है।
एक बेबस और तंगहाल पिता के संघर्ष और अन्तर्द्वन्द को आपने बहुत बेहतर ढंग से शब्दों में बांधा है।
पिता
एक ऐसा ..........
जिसकी नाक में
वात्सल्य की नकेल डाल कर
चाहे जहाँ बुला लो
चाहे जो करवा लो.
मार्मिक और संवेदनशील कविता।
संवेदनशील रचना !!!!
bahot sundar kavita hai.
इतनी सुन्दर कविता कोई समझदार बेटी ही लिख सकती है। बधाई।
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