Wednesday, September 30, 2009

सोशल- एडजस्टमेंट/सोशल इंजीनियरिंग

प्लास्टिक के टुकड़े की तरह

चिटक-चिटक जाती हैं

मन की कोमल भावनाएँ

और बार-बार

विवशता का फ़ेवीकोल लगा कर

जोड़ा जाता है मन...

सोशल एडजस्टमेंट इसी को तो कहते हैं !

29 comments:

Rakesh Singh - राकेश सिंह said...

वाह .... नया अंदाज़ अच्छा लगा

M VERMA said...

क्ब तक जुडे रहेंगे ये जोड
आज नही तो कल --
बहुत सुन्दर

Apanatva said...

aaj ka yatharth ye hee hai |Bahut hee acchee rachana|
badhai

Mithilesh dubey said...

क्या बात है, अंदाज बदला लेकिन बात वही रही।

Udan Tashtari said...

ओह!! आज की कविता!!

जय हो, बधाई.

Chandan Kumar Jha said...

बहुत सुन्दर भाव ।

अर्कजेश said...

विवशता का फेविकोल ? वाह ! बहुत कमजोर होता है यह।

Himanshu Pandey said...

वाह ! क्या गजब ! बेहद खूबसूरत ।

Arvind Mishra said...

और सोशल इंजीनियरिंग मीनू जी ? यह क्षणिका तो सचमुच लाजवाब है !

दर्पण साह said...

Is 'social adjusment' ne...
Emotional kar dala !!


hazarron example bhare pade hai meri zindagi main is 'social adjusment' ke....

...afsoos Fevicol ka majbbot (?) jod hai tootega nahi !!
:(

Unknown said...

केवल कुछ पंक्तियों में सुन्दर अभिव्यक्ति!! जैसे कि गागर में सागर!!!

Anonymous said...

मन के बारे माँ प्यारी सी अभिव्यक्ति !
अति सुंदर !

admin said...

न चाहते हुए भी करना ही पडता है।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }

मनोज कुमार said...

क्षणिका तो बहुत अच्छी है, पर ये नारी मन कब तक एडजस्ट करता रहेगा?
जो भी है सूरते हालात कहो, चुप न रहो,
रात अगर है तो उसे रात कहो, चुप न रहो।

Dr. Manish Kumar Mishra said...

/पिछले २ अक्टूबर २००८ की शाम
गांधीजी के तीन बंदर राज घाट पे आए.
और एक-एक कर गांधी जी से बुदबुदाए,
पहले बंदर ने कहा-
''बापू अब तुम्हारे सत्य और अंहिंसा के हथियार,
किसी काम नही आ रहे हैं ।
इसलिए आज-कल हम भी एके४७ ले कर चल रहे हैं। ''

दूसरे बंदर ने कहा-
''बापू शान्ति के नाम ,
आज कल जो कबूतर छोडे जा रहे हैं,
शाम को वही कबूतर,नेता जी की प्लेट मे नजर आ रहे हैं । ''

तीसरे बंदर ने कहा-
''बापू यह सब देख कर भी,
हम कुछ कर नही पा रहे हैं ।
आख़िर पानी मे रह कर ,
मगरमच्छ से बैर थोड़े ही कर सकते हैं ? ''

तीनो ने फ़िर एक साथ कहा --
''अतः बापू अब हमे माफ़ कर दीजिये,
और सत्य और अंहिंसा की जगह ,कोई दूसरा संदेश दीजिये। ''

इस पर बापू क्रोध मे बोले-
'' अपना काम जारी रखो,
यह समय बदल जाएगा ।
अमन का प्रभात जल्द आयेगा । ''

गाँधी जी की बात मान,
वे बंदर अपना काम करते रहे।
सत्य और अंहिंसा का प्रचार करते रहे ।
लेकिन एक साल के भीतर ही ,
एक भयानक घटना घटी ।
इस २ अक्टूबर २००९ को ,
राजघाट पे उन्ही तीन बंदरो की,
सर कटी लाश मिली ।
Posted by DR.MANISH KUMAR MISHRA at 08:03 0 comments
Labels: hindi kavita. hasya vyang poet, गाँधी जी के तीन बंदर
Reactions:

Ashok Kumar pandey said...

chhanika aakarshit karatii hai

पूनम श्रीवास्तव said...

सार्थक भावों की अभिव्यक्ति।
पूनम

Naveen Tyagi said...

meenu ji ab to bajar me fevicol bhi nakli aane laga hai.

Harshvardhan said...

aapka yah andaaj bhaaya.......kavita achchi lagi

दिगम्बर नासवा said...

VAAH ......... BAHOOT HI LAJAWAAB, VASTVIKTA KE KAREEB, SATY KI ABHIVYAKTI HAI.......... YEH CHOTI SI RACHNA GAHRI BAT KAH GAYEE ...

हरकीरत ' हीर' said...

मीनू जी आपकी कवितायें व्यंग लिए हुए गहरी चोट करती हैं ....आपकी ये खाशियात अच्छी लगती है ...!!

shama said...

Waah!aapka andaze bayaan.har waqt nirala hita hai..behad achhee fankaar hain!

http://shamasansmaran.blogspot.com

http://aajtakyahantak-thelightbyalonelypath.blogsot.com

http://baagwaanee-thelightbyalonelypath.blogspot.com

http://kavitasbyshama.blogspot.com

kabhee nazre inayat kareN

सुशीला पुरी said...

'सोशल इंजीनियरिंग' भी तो कह सकते हैं.........मीनू जी ! कम शब्दों में बडी बात कही है आपने .

ओम आर्य said...

बिल्कुल सही कहा आपने ........हर कदम पर तो टुटती ही है ......

Meenu Khare said...

@अरविन्द जी
@सुशीला जी

आप लोगों के सुझाव पर मै इस कविता का शीर्षक "सोशल इंजीनियरिंग" करने की सोच रही हूँ...

admin said...

हालांकि आपकी कविता के बारे में पहले भी कमेंट कर चुका हूं, पर आज आका तअर्रूफ देखा, उसमें दिया शेर बहुत प्यारा है।
एक छोटा सा सुझाव है उसमे आपने अजीब शब्द इस्तेमाल किया है, मेरी समझ से वहाँ पर अजब होना चाहिए। क्योंकि अजीब से शेर का वज्न गडबड हो रहा है।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }

Meenu Khare said...

धन्यवाद ज़ाकिर ! आपकी बात बिल्कुल ठीक थी.वांछित परिवर्तन कर दिया है.

स्वप्न मञ्जूषा said...

bahut khoo kahi..
social adjustment ko accha paribhashit kiya..
badhai..

Unknown said...

विवशता का फ़ेवीकोल लगा कर

जोड़ा जाता है मन...

सोशल एडजस्टमेंट इसी को तो कहते हैं !
wah
WAH

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