Friday, October 01, 2010

इक नया शिवाला इस देश में बना दें




आ गैरियत के परदे इक बार फिर उठा दें 
बिछड़ों को फिर मिला दें नक्शे दुई मिटा दें.

सूनी पड़ी हुई है मुद्दत से दिल की बस्ती 
आ इक नया शिवाला इस देश में बना दें

दुनिया के तीर्थों से ऊंचा हो अपना तीरथ
दामन-ए-आसमान से इसका कलस मिला दें

हर सुबह मिल के गाएं मंतर वो मीठे मीठे
सारे पुजारिओं को मय प्रीत की पिला दें

शक्ति भी शान्ति भी भक्तों के गीत में है 
धरती के बासियों की मुक्ति भी प्रीत में है.

आ गैरियत के परदे इक बार फिर उठा दें 
बिछड़ों को फिर मिला दें नक्शे दुई मिटा दें.
                                               ---अल्लामा इकबाल 
 

9 comments:

शरद कोकास said...

दर असल ज़रूरत तो इसी शिवाले की थी जो पता नही बनेगा भी या नही बनेगा ?

Pramod Kumar Kush 'tanha' said...

सूनी पड़ी हुई है मुद्दत से दिल की बस्ती
आ इक नया शिवाला इस देश में बना दें

bahut sunder vichaar...

डॉ. मोनिका शर्मा said...

बहुत ही अच्छी ग़ज़ल सार्थक और प्रासंगिक.....
आपका आभार इसे पढवाने के लिए

दिगम्बर नासवा said...

हर सुबह मिल के गाएं मंतर वो मीठे मीठे
सारे पुजारिओं को मय प्रीत की पिला दें

कमाल की पंक्तियाँ है ... ग़ज़ल भी लाजवाब है ...

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून said...

कौन बताए इक़बाल को ये हो ही कहां सकता है

डॉ महेश सिन्हा said...

सही कहा है

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

Ati sundar.
................
…ब्लॉग चर्चा में आप सादर आमंत्रित हैं।

शरद मिश्र said...

आपका चित्र संयोजन सुन्दर है .

सुशीला पुरी said...

लाजवाब !!!

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