आ इक नया शिवाला इस देश में बना दें
दुनिया के तीर्थों से ऊंचा हो अपना तीरथ
दामन-ए-आसमान से इसका कलस मिला दें
हर सुबह मिल के गाएं मंतर वो मीठे मीठे
सारे पुजारिओं को मय प्रीत की पिला दें
शक्ति भी शान्ति भी भक्तों के गीत में है
धरती के बासियों की मुक्ति भी प्रीत में है.
आ गैरियत के परदे इक बार फिर उठा दें
बिछड़ों को फिर मिला दें नक्शे दुई मिटा दें.
---अल्लामा इकबाल
9 comments:
दर असल ज़रूरत तो इसी शिवाले की थी जो पता नही बनेगा भी या नही बनेगा ?
सूनी पड़ी हुई है मुद्दत से दिल की बस्ती
आ इक नया शिवाला इस देश में बना दें
bahut sunder vichaar...
बहुत ही अच्छी ग़ज़ल सार्थक और प्रासंगिक.....
आपका आभार इसे पढवाने के लिए
हर सुबह मिल के गाएं मंतर वो मीठे मीठे
सारे पुजारिओं को मय प्रीत की पिला दें
कमाल की पंक्तियाँ है ... ग़ज़ल भी लाजवाब है ...
कौन बताए इक़बाल को ये हो ही कहां सकता है
सही कहा है
Ati sundar.
................
…ब्लॉग चर्चा में आप सादर आमंत्रित हैं।
आपका चित्र संयोजन सुन्दर है .
लाजवाब !!!
Post a Comment