प्लास्टिक के टुकड़े की तरह
चिटक-चिटक जाती हैं
मन की कोमल भावनाएँ
और बार-बार
विवशता का फ़ेवीकोल लगा कर
जोड़ा जाता है मन...
सोशल एडजस्टमेंट इसी को तो कहते हैं !
Wednesday, September 30, 2009
Tuesday, September 29, 2009
अभिनन्दन ब्लॉगवाणी
Sunday, September 27, 2009
जहाँ राम का धर्म इस्लाम है...
भारत में उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से करीब 15 किमी दूर बक्शी के तालाब की रामलीला साम्प्रदायिक सौहार्द्र की एक बड़ी मिसाल है.यहाँ पर न केवल रामलीला के प्रबन्धन में मुस्लिम समुदाय के लोग भाग लेते है बल्कि राम, लक्षमण, दशरथ और रामायण के सभी महत्वपूर्ण चरित्रों का रोल भी मुस्लिम समुदाय के लोगों द्वारा अभिनीत किया जाता है तथा पूरे हिन्दू समाज द्वारा इसे पूरी आस्था के साथ स्वीकार भी किया जाता है.
इस रामलीला कमेटी के मुखिया डॉ. मंसूर अहमद बताते हैं कि यह अनोखी रामलीला उनके पिताजी के समय शुरू हुई और पिछले 30 सालों से भी अधिक समय से नियमित रूप से होती आ रही है. क्षेत्र में साम्प्रदायिक सौहार्द्र् का आलम यह है कि रमज़ान के महीने मे राम, लक्षमण आदि का रोल कर रहे मुस्लिम भाई चूँकि रोज़े से होते हैं अत: रोज़ा इफ़्तार के समय रामलीला बीच में रोक कर पहले इफ़्तार किया जाता है, फिर नमाज़ पढ कर फिर से रामलीला शुरू की जाती है. और हाँ रोज़ा इफ़्तार का प्रबन्ध हिन्दू भाइयों द्वारा किया जाता है..
रामलीला कमेटी के सचिव विदेशपाल यादव जी बताते हैं कि इस रामलीला को देखने दूर दूर से लोग आते हैं. 50 हज़ार से भी अधिक दर्शकों के सामने राम का अभिनय करना कैसा लगता है यह पूछने पर राम का रोल कर रहे कमाल खाँ कहते हैं कि मेरे लिए यह अद्भुत अनुभव होता है. एक देवता के रूप में लोग पैर छूते हैं, आरती उतारते हैं ! इसे शब्दों में बाँध पाना मुश्किल है. रामलीला देखने आई एक महिला सुनीता से जब मैने पूछा कि एक मुस्लिम को राम के रूप में देख कर कैसा लगता है तो वह बोली कोई किसी भी धर्म का हो जब वो राम के रूप में आ गया तो पूज्यनीय ही हुआ न!
रामलीला का निर्देशन करने वाले साबिर खाँ के हाथों में रामायण थी और वो बड़ी आस्थापूर्वक नंगे पाँव खडे थे.कारण पूछने पर वे कहते हैं कि मेरे लिए जितनी क़ुरआन पवित्र है उतनी ही रामायण.साबिर खाँ साहब को पूरी रामायण याद है और सभी पुराणों का अध्य्यन भी उन्होने किया है.
रामलीला कमेटी के कार्यकर्ता नागेन्द्र बताते हैं कि यहाँ पर दोनो साम्प्रदाय के लोग बरसों से मिलजुल कर रह्ते है. पास के चन्द्रिका देवी मन्दिर के जीर्णोद्धार में भी मुस्लिम भाइयों ने कारसेवा की.
कमेटी के ऊर्जावान कार्यकर्ता आशिद अली कहते हैं कि ताली एक हाथ से नही बजती हम लोग रामलीला करते हैं तो हिन्दू भाई भी ईद और हमारे अन्य आयोजनों में बढ़ चढ कर हिस्सा लेते हैं.
आज पूरे देश में जहाँ एक ओर साम्प्रदायिक तनाव की चर्चा आम होने लगी है ऐसे में बक्शी के तालाब की यह रामलीला इस बात का सबूत है कि प्रेम से बड़ा कोई धर्म नही है.
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Tuesday, September 22, 2009
गिफ़्ट पैक
औरतों में प्रतिभा नही होती
पर होती हैं उनके पास बिन्दी, चूड़ियाँ, काजल..
औरतों मेहनत भी नही कर पातीं
पर उन्हे आता है चहकना, खिलखिलाना, मुस्कुराना...
औरतों के लिए आगे बढ़ना मुश्किल नही होता
बड़ी आसानी से
वे बढ़ जाती हैं आगे
अगले को
अपनी मुस्कान का "गिफ़्ट-पैक"
पकड़ा कर ...
वे पा लेती हैं ऊँचाइयाँ
बस खिलखिला कर ..
कर देती हैं द्रवित
मोती जैसे आँसुओं से.
पा जाती हैं औरतें, बड़ी-बड़ी उपलब्धियाँ, बड़ी आसानी से.
शो-बिज़नेस का ज़माना है
और
औरतें होती हैं
शो-पीस की मानिन्द ...
कोई ज़रूरत ही कहाँ है इन्हे
परिश्रम की ?
कोई ज़रूरत ही कहाँ है इन्हे
प्रतिभा की?
इन्हे तो आगे बढ़्ना ही बढ़्ना है
यह नहीं बढ़ेंगी तो और कौन बढ़ेगा आगे?
इन्दिरा, लता, महादेवी, किरन बेदी
सभी प्रतिभाहीन
एक तरफ़ से.
पर होती हैं उनके पास बिन्दी, चूड़ियाँ, काजल..
औरतों मेहनत भी नही कर पातीं
पर उन्हे आता है चहकना, खिलखिलाना, मुस्कुराना...
औरतों के लिए आगे बढ़ना मुश्किल नही होता
बड़ी आसानी से
वे बढ़ जाती हैं आगे
अगले को
अपनी मुस्कान का "गिफ़्ट-पैक"
पकड़ा कर ...
वे पा लेती हैं ऊँचाइयाँ
बस खिलखिला कर ..
कर देती हैं द्रवित
मोती जैसे आँसुओं से.
पा जाती हैं औरतें, बड़ी-बड़ी उपलब्धियाँ, बड़ी आसानी से.
शो-बिज़नेस का ज़माना है
और
औरतें होती हैं
शो-पीस की मानिन्द ...
कोई ज़रूरत ही कहाँ है इन्हे
परिश्रम की ?
कोई ज़रूरत ही कहाँ है इन्हे
प्रतिभा की?
इन्हे तो आगे बढ़्ना ही बढ़्ना है
यह नहीं बढ़ेंगी तो और कौन बढ़ेगा आगे?
इन्दिरा, लता, महादेवी, किरन बेदी
सभी प्रतिभाहीन
एक तरफ़ से.
Friday, September 18, 2009
नारायणि नमोऽस्तु ते॥
“सर्वमङ्गलमङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके।
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते॥”
हे नारायणी!आप सब प्रकार का मङ्गल प्रदान करनेवाली मङ्गलमयी हैं। कल्याणदायिनी शिवा हैं। सब पुरुषार्थो को सिद्ध करनेवाली, शरणागतवत्सला, तीन नेत्रोंवाली एवं गौरी हैं। आपको नमस्कार है।
“सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्ति समन्विते।
भयेभ्याहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तु ते॥
सर्वस्वरूपा, सर्वेश्वरी तथा सब प्रकार की शक्तियों से सम्पन्न दिव्यरूपा दुर्गे देवि! सब भयों से हमारी रक्षा करो; आपको नमस्कार है।
"सृष्टिस्थितिविनाशानां शक्ति भूते सनातनि।
गुणाश्रये गुणमये नारायणि नमोऽस्तु ते॥"
तुम सृष्टि, पालन और संहार की शक्ति भूता, सनातनी देवी, गुणों का आधार तथा सर्वगुणमयी हो। नारायणि! आपको नमस्कार है।
“शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे।
सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते॥”
शरण में आये हुए दीनों एवं पीडितों की रक्षा में संलग्न रहनेवाली तथा सबकी पीडा दूर करनेवाली नारायणी देवी! आपको नमस्कार है।
"ॐ जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी।
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते॥"
जयन्ती, मङ्गला, काली, भद्रकाली, कपालिनी, दुर्गा, क्षमा, शिवा, धात्री, स्वाहा और स्वधा- इन नामों से प्रसिद्ध जगदम्बिके! आपको मेरा नमस्कार हो।
"देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि मे परमं सुखम्।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥"
हे माँ ! मुझे सौभाग्य और आरोग्य दो। काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो, रूप दो, जय दो, यश दो और परम सुख दो.
Thursday, September 17, 2009
विभाजन के समय मारे गए हज़ारों हिन्दुओं का पिंडदान और तर्पण : तेभ्य: स्वधा
चीड़ वन के आहत मौन को समर्पित, प्रसिद्ध साहित्यकार डॉ.नीरजा माधव का उपन्यास "तेभ्य:स्वधा" कश्मीर की राजौरी घाटी के शरणार्थी शिविरों में बसे उन हज़ारों अनाम हिन्दुओं को श्रद्धांजलि है जो भारत-विभाजन के समय पाकिस्तान से विस्थापित हुए और बर्बरतापूर्वक मारे गए.
आज पूरा विश्व आतंकवाद के खौफ़नाक साए में जीने को मजबूर है. आतंकवाद की मार से भारत सर्वाधिक घायल है परंतु आतंकवाद की निन्दा और उससे बदला लेने की एक अनूठी कोशिश का नाम है तेभ्य: स्वधा...
यह उपन्यास एक साधारण सी लड़्की मीना की कहानी पर आधारित है जिसका पूरा परिवार राजौरी में बसे शरणार्थियों पर सीमा पार से आए कबायलियों के हमले के दौरान मारा जाता है...साथ ही मारे जाते है पूरे गाँव के लोग... बची रह जाती है केवल एक लड़की मीना जिसे एक आक्रमणकारी कबायली जबरन उठा ले जाता है...लुट जाता है मीना का अस्तित्व...बन जाती है वो मीना से अमीना... पर साधारण सी लगने वाली मीना वास्तव में असाधारण है. कभी हार न मानने वाली लड़्की मीना...आतंकवादी से मीना को एक बेटा पैदा होता है जिसे पिता से जहाँ मज़हब की तालीम मिलती है, वहीं माता से वैदिक धर्म का ज्ञान... यही लड़्का बाद में अपनी माँ के साथ भारत आता है और माता की इच्छा के लिए पूरी श्रद्धा और विधान के साथ, गया जाकर उन हज़ारो लोगो का पिन्डदान व तर्पण करता है जो बरसों पहले राजौरी में मारे गए थे...
कथानक और विषय-वस्तु की द्रष्टि से उपन्यास पठनीय है.मानवीय सम्बन्धों की जटिलताओं और कहीं कहीं विवशताओं का बड़ा मार्मिक चित्रण उपन्यास मे किया गया है.
विद्दा विहार, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक का विक्रय मूल्य रु.200/- है.
भारत विभाजन और उसके बाद आज तक, साम्प्रदायिक हिंसा और आतंकवाद के कारण मारे गए सभी निर्दोष लोगों को मेरी ओर से भी श्रद्धांजलि और नमन.
Tuesday, September 15, 2009
सिफ़र का सफ़र
आज आपके लिए ले कर आई हूँ एक गीत. वास्तव में यह गीत, आजकल प्रत्येक शुक्रवार शाम 6:15 बजे, आकाशवाणी लखनऊ से प्रसारित हो रहे रेडियो धारावाहिक, "सिफ़र का सफ़र" का शीर्षक गीत है. यह नाट्य-धारावाहिक उन महिलाओं के जीवन की सच्ची घटनाओं पर आधारित है जिन्होने शून्य से शुरुआत कर शिखर तक पहुँचने में सफलता प्राप्त की और महिला सशक्तीकरण की अनुकरणीय मिसाल प्रस्तुत की. इस धारावाहिक को बनाने का अनुभव बहुत रोमांचकारी रहा. दुर्गम गाँवों की ऐसी-ऐसी महिलाओं से मिलने और उन्हें जानने का मौक़ा इसको बनाने के बहाने मिला, जो भले ही पढी-लिखी नही पर निसंकोच स्वीकारती हूँ कि उनकी हिम्मत और मेहनत की कहानी सुन कर कई बार मैंने अपने आपको छोटा मह्सूस किया. आपको उन महिलाओं से मिलवाऊँगी, आगे इसी ब्लॉग पर. आज प्रस्तुत है "सिफ़र का सफ़र" का शीर्षक-गीत. आपकी सुविधा के लिए गीत के साथ इसका ऑडियो भी प्रस्तुत है. इसका संगीत तैयार किया है हेम सिंह ने और गायन स्वर संगीता मिश्रा का है. पढिए, सुनिए यह गीत. कोशिश की है कि गीत के माध्यम से इन महिलाओं का जीवन अभिव्यक्त कर सकूँ. गीत आपको कैसा लगा, यह जानने का इंतज़ार रहेगा.
सिफ़र के सफ़र में, अँधेरों की स्याही
कहानी ये किसने लिखी और सुनाई ?
मगर हमने सपना अलग इक सजाया
किरनों को जोड़ा और सूरज उगाया,
सतरंगी चूनरिया पंख बने अरमान
हौसलों की हमने भरी एक उड़ान,
बूँद-बूँद रौशनी से जगमग जहान
आँगन में दुनिया आँचल में आसमान.
(गीत सुनने के लिए यहाँ क्लिक करें)
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मीनू खरे का ब्लॉग,
सफ़र
Wednesday, September 09, 2009
मेरा तर्पण डैडी तक पहुँचे
कई कारणों से आज का दिन मेरे लिए एक विशिष्ट दिन है. पहला,आज 09-09-09 है, जो स्वयँ में एक अद्वितीय तिथि है. दूसरा, तीन बार नौ अंकों वाली इस दुर्लभ तारीख को आश्विन मास कृष्ण पक्ष की पंचमी भी पड़ रही जो मेरे पूज्य पिताजी की श्राद्ध तिथि है और तीसरा यह कि सँयोग से आज ही मेरा जन्म-दिन भी है. इतने सारे सँयोगों वाली यह तिथि निसन्देह मेरे जीवन में पहली और आखिरी बार आई है और इन अद्भुत सँयोगों के चलते, आज के दिन बिल्कुल अलग तरह की मानसिक अनुभूतियों से घिरी हूँ मैं.
हर वर्ष मेरा नौ सितम्बर का दिन अपने लोगों की शुभकामनाओं और अपनेपन के उल्लास के बीच बीतता है. शायद एक रेडियो प्रोड्यूसर और प्रेज़ेंटर होने के कारण इतने सारे लोगों का जुड़ाव मुझसे है. कुछ लोग मिल कर मुझे बधाइयाँ प्रेषित करते हैं तो कुछ लोग फोन द्वारा. आज के दिन, अक्सर मेरा फोन बिना रूके बजता रहता है..फोन अटेंड करने पर कुछ के बधाई सन्देश प्राप्त होते हैं तो कुछ के उलाहने कि मेरे लिए तो आपके पास समय ही नही. सच, मैं मंत्रमुग्ध सी रह जाती हूँ, ईश्वर की इस अनुकम्पा पर कि उसने मुझे इतने सारे स्नेहिल लोग दिए. आज फिर नौ सितम्बर थी. फोन तो आज भी सारा दिन बजा किया, कभी कभी तो लाइव स्टूडियो के कारण फ़ोन स्विच ऑफ़ भी करना पड़ा पर फ़िर भी आज का दिन कुछ अलग मनोवेगों के बीच बीता... आज मेरे प्यारे डैडी का श्राद्ध भी तो था न !
26 दिसम्बर 1995 का वो दिन जब मैने अंतिम बार अपने डैडी को स्पर्श किया था. एक हिमशिला जैसा उनका ठंडा शरीर मुझमें एक अजब सिहरन भर गया था. मृत्यु कितनी शीत होती है.. वो आदमी को ठंडा कर देती है सदा के लिए.. फ़्रीज़ हो जाता है समय तक जैसे ... डैडी क्या गए मानो मेरे मन में बस गया एक पूरा का पूरा हिमखण्ड जो जब तब पिघलता रहता है..और मैं भीगा करती हूँ डैडी की यादों में.
दुनिया की हर लड़्की की तरह मैं भी कहा करती हूँ कि मेरे डैडी दुनिया के सबसे अच्छे पिता थे..बहुत अमीर रिश्तेदारों के बीच, साधारण आर्थिक स्थिति वाले मेरे डैडी बेहद असाधारण थे क्यों कि केवल दो बेटियों का पिता होने पर भी मैने उन्हे कभी बेटे के लिए तरसते नही पाया... अपनी दोनों बेटियों की परवरिश उन्होने बेटों से बढ कर की. अपनी कड़ी मेहनत की कमाई सँयुक्त परिवार के तमाम विरोधों के बावजूद उन्होने बेटियों की शिक्षा पर भरपूर लुटाई...डैडी चाहते थे कि हम दोनो बहने हर तरह से योग्य बने. उन्हे अपनी आर्थिक क्षमता और बेटियों के नाम पर समाज के चैलेंज का पूरा अहसास था शायद तभी तो कभी कभी मेरी तरफ़ बडी हसरत से देख कर वे कहा करते थे " बिटिया तू एक बार मेरा नाम कर दे दुनिया में..." डैडी से अंतिम विदा लेते समय उनके पैर छूकर मैने आसमान छू लेने की उनकी इच्छा पूरी करने का जो वायदा किया था वो एक पल भी चैन से बैठने नहीं देता...हर पल प्रयास जारी है.
और हाँ डैडी, आपके जाने के बाद से हर पितृपक्ष में, मैने आपके लिए तर्पण और श्राद्ध कर्म पूरी निष्ठा से किया है...कुछ लोग कहते हैं कि बेटी का तर्पण पित्तरों तक नही पहुँचता. डैडी मैं आपकी ही तो बेटी हूँ ना! आपका ही एक अंश! मुझे समाज के इस तरह के चैलेंज फेस करने के आपके तरीके पूरी तरह याद हैं...किसी से कुछ कहने-सुनने से बेहतर है, अपनी धुन में ,अपने उद्देश्य के लिए निरंतर कर्म करते जाना. इसी नियम से आपको सफल होते देखा है मैने सदा... आज मेरी बारी है... मैं पूरी निष्ठा से आपके लिए तर्पण करती हूँ और जैसे किसी पत्र पर पाने वाले का नाम पता लिख दिया जाता है, वैसे ही अर्घ्य की हर बूँद पर भावनाओं की स्याही से लिख देती हूँ " मेरा तर्पण डैडी तक पहुँचे..."
मुझे आस्था की शक्ति पर पूरा विश्वास है.
मुझे मालूम है, मेरा तर्पण आप तक पहुँच चुका है डैडी...
आपकी बेटी,
मीनू
हर वर्ष मेरा नौ सितम्बर का दिन अपने लोगों की शुभकामनाओं और अपनेपन के उल्लास के बीच बीतता है. शायद एक रेडियो प्रोड्यूसर और प्रेज़ेंटर होने के कारण इतने सारे लोगों का जुड़ाव मुझसे है. कुछ लोग मिल कर मुझे बधाइयाँ प्रेषित करते हैं तो कुछ लोग फोन द्वारा. आज के दिन, अक्सर मेरा फोन बिना रूके बजता रहता है..फोन अटेंड करने पर कुछ के बधाई सन्देश प्राप्त होते हैं तो कुछ के उलाहने कि मेरे लिए तो आपके पास समय ही नही. सच, मैं मंत्रमुग्ध सी रह जाती हूँ, ईश्वर की इस अनुकम्पा पर कि उसने मुझे इतने सारे स्नेहिल लोग दिए. आज फिर नौ सितम्बर थी. फोन तो आज भी सारा दिन बजा किया, कभी कभी तो लाइव स्टूडियो के कारण फ़ोन स्विच ऑफ़ भी करना पड़ा पर फ़िर भी आज का दिन कुछ अलग मनोवेगों के बीच बीता... आज मेरे प्यारे डैडी का श्राद्ध भी तो था न !
26 दिसम्बर 1995 का वो दिन जब मैने अंतिम बार अपने डैडी को स्पर्श किया था. एक हिमशिला जैसा उनका ठंडा शरीर मुझमें एक अजब सिहरन भर गया था. मृत्यु कितनी शीत होती है.. वो आदमी को ठंडा कर देती है सदा के लिए.. फ़्रीज़ हो जाता है समय तक जैसे ... डैडी क्या गए मानो मेरे मन में बस गया एक पूरा का पूरा हिमखण्ड जो जब तब पिघलता रहता है..और मैं भीगा करती हूँ डैडी की यादों में.
दुनिया की हर लड़्की की तरह मैं भी कहा करती हूँ कि मेरे डैडी दुनिया के सबसे अच्छे पिता थे..बहुत अमीर रिश्तेदारों के बीच, साधारण आर्थिक स्थिति वाले मेरे डैडी बेहद असाधारण थे क्यों कि केवल दो बेटियों का पिता होने पर भी मैने उन्हे कभी बेटे के लिए तरसते नही पाया... अपनी दोनों बेटियों की परवरिश उन्होने बेटों से बढ कर की. अपनी कड़ी मेहनत की कमाई सँयुक्त परिवार के तमाम विरोधों के बावजूद उन्होने बेटियों की शिक्षा पर भरपूर लुटाई...डैडी चाहते थे कि हम दोनो बहने हर तरह से योग्य बने. उन्हे अपनी आर्थिक क्षमता और बेटियों के नाम पर समाज के चैलेंज का पूरा अहसास था शायद तभी तो कभी कभी मेरी तरफ़ बडी हसरत से देख कर वे कहा करते थे " बिटिया तू एक बार मेरा नाम कर दे दुनिया में..." डैडी से अंतिम विदा लेते समय उनके पैर छूकर मैने आसमान छू लेने की उनकी इच्छा पूरी करने का जो वायदा किया था वो एक पल भी चैन से बैठने नहीं देता...हर पल प्रयास जारी है.
और हाँ डैडी, आपके जाने के बाद से हर पितृपक्ष में, मैने आपके लिए तर्पण और श्राद्ध कर्म पूरी निष्ठा से किया है...कुछ लोग कहते हैं कि बेटी का तर्पण पित्तरों तक नही पहुँचता. डैडी मैं आपकी ही तो बेटी हूँ ना! आपका ही एक अंश! मुझे समाज के इस तरह के चैलेंज फेस करने के आपके तरीके पूरी तरह याद हैं...किसी से कुछ कहने-सुनने से बेहतर है, अपनी धुन में ,अपने उद्देश्य के लिए निरंतर कर्म करते जाना. इसी नियम से आपको सफल होते देखा है मैने सदा... आज मेरी बारी है... मैं पूरी निष्ठा से आपके लिए तर्पण करती हूँ और जैसे किसी पत्र पर पाने वाले का नाम पता लिख दिया जाता है, वैसे ही अर्घ्य की हर बूँद पर भावनाओं की स्याही से लिख देती हूँ " मेरा तर्पण डैडी तक पहुँचे..."
मुझे आस्था की शक्ति पर पूरा विश्वास है.
मुझे मालूम है, मेरा तर्पण आप तक पहुँच चुका है डैडी...
आपकी बेटी,
मीनू
Tuesday, September 01, 2009
पर्स में उगा पैसों का पेड़
अपने बिल्कुल खाली पर्स में उगे
पैसों के
इक पेड़ की छाँव में,
चॉकलेट का एक पौधा लगाना चाहती हूँ मैं
अपने बच्चे के लिए.
जिसकी पत्तियाँ टॉफ़ी की हों
और
जिस पर बिस्किट के फल उगें..
जिसकी छाल बेशक़ीमती कपड़ों की हो
तो फूल हों
सुन्दर खिलौनों से..
और फूलों की महक हो
बेहतरीन लज़ीज़ व्यंजनों की महक से मिलती
और जिसके बीज
एक ऐसा नया पेड़
उगा सकने में सक्षम हों
कि
उसकी जड़ पीस कर
अपने बच्चे को यदि पिलाऊँ मै
तो मेरा बच्चा
फिर कभी ज़िद्द न करे मुझसे
चॉकलेट,टॉफ़ी, बिस्किट, खिलौने और नए कपड़े
खरीद कर देने की.
पैसों के
इक पेड़ की छाँव में,
चॉकलेट का एक पौधा लगाना चाहती हूँ मैं
अपने बच्चे के लिए.
जिसकी पत्तियाँ टॉफ़ी की हों
और
जिस पर बिस्किट के फल उगें..
जिसकी छाल बेशक़ीमती कपड़ों की हो
तो फूल हों
सुन्दर खिलौनों से..
और फूलों की महक हो
बेहतरीन लज़ीज़ व्यंजनों की महक से मिलती
और जिसके बीज
एक ऐसा नया पेड़
उगा सकने में सक्षम हों
कि
उसकी जड़ पीस कर
अपने बच्चे को यदि पिलाऊँ मै
तो मेरा बच्चा
फिर कभी ज़िद्द न करे मुझसे
चॉकलेट,टॉफ़ी, बिस्किट, खिलौने और नए कपड़े
खरीद कर देने की.
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