Friday, May 20, 2011
विक्रम-बेताल और बिजली
विक्रम का मूड बड़ा अपसेट था.एक तो गर्मी बहुत थी ऊपर से बेताल कंधे पर चढा पड़ा था.पसीने से लथपथ विक्रम के कंधे पर चढे बेताल को भी मज़ा नही आ रहा था.वो बोला “यार इत्ती गर्मी में कम से कम डियोडरेंट तो लगा लेते,पसीना बदबू मार रहा है!” विक्रम जलभुन कर बोला “रात भर बिजली नही थी,एक मिनट भी सोया नही.आँखे कडुआ रही है और तुम्हे डियोडरेंट सूझ रहा है?”बेताल चुप हो गया.गर्मी और पसीना दोनों किलिंग थे. विक्रम को बेतहाशा गरियाता, बेताल सोचने लगा कि आज तो ऐसी कहानी सुनाऊंगा कि प्रश्नों के उत्तर देने के पहले ही इसके सिर के टुकड़े हो जाएंगे.कहानी शुरू हुई.
“एक नेक इंसान था.उसके अच्छे कामों से खुश होकर भगवान ने उससे एक वरदान मांगने को कहा.वो बोला “भगवन जीवन में बहुत अन्धेरा है, कुछ उजाला करो !”भगवान ने उसके घर में बिजली का कनेक्शन दिलवा दिया.भक्त पहले गदगद फिर उदास हुआ क्योंकि बिजली बहुत कम आती थी.एक महीने बाद बिजली का बड़ा बिल आया.उससे भक्त चकराया.सब कुछ भगवान को बताया.भगवान बोले “इसमें मै हेल्पलेस हूँ.तुम बिजली विभाग से शिकायत करो.”भक्त ने बिजली विभाग में फोन लगाया.वहाँ मोबाइल स्विच ऑफ पाया.भक्त घर लौट आया.उसे भूख लगी थी पर आज पत्नी ने खाना नही बनाया.भक्त ने पूछा ऐसा क्यों? पत्नी बोली “बिजली नही थी सो पानी भी नदारद था.अब बिना पानी के भी खाना बनता है क्या?”भक्त भूखा सो गया. उसने अगले दिन बिजली विभाग के सामने धरना-प्रदर्शन और रोड जाम किया.बिजली विभाग ने तो नही पर पुलिस ने अपना काम किया.घायल भक्त अब अस्पताल में था. भक्त को बड़ा रोना आया.उसने भगवान को फोन लगाया. हे भगवान! बिजली ने मुझे इतना क्यों रुलाया? पर इस बार तो भगवान का मोबाइल भी स्विच-ऑफ आया.हे विक्रम!अब इस भक्त को क्या करना चाहिए इस प्रश्न का सही उत्तर दो वरना तुम्हारे सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जाएंगे.”
उधर से कोई जवाब नही आया.बेताल ने पीछे देखा. विक्रम का सिर टुकडों में टूटा पड़ा था.भला जिस प्रश्न पर भगवान भी फोन स्विच ऑफ कर दे उसका उत्तर इंसान क्या देगा? बेताल ने कसम खाई कि अब वो बिजली से जुडी कहानी कभी किसी को नही सुनाएगा और मुंह लटकाकर पेड़ पर चढ़ गया.
(20-05-2011 को दैनिक हिंदुस्तान,लखनऊ संस्करण में प्रकाशित.)
Monday, May 16, 2011
शिवानी का विशेष दिन
शिवानी मेरी भांजी का नाम है.वो आठवीं कक्षा में पढ़ती है.मै उसकी मौसी हूँ.मौसी यानी “माँ सी” और इस नाते शिवानी में मुझे भांजी के साथ बेटी की छवि भी हमेशा दिखाई देती है.आज का दिन विशेष है न केवल शिवानी के लिए बल्कि मेरे पूरे परिवार के लिए.आज हमारी बेटी ने पहली बार रेडियो पर एक कार्यक्रम का संचालन किया.उसकी आवाज़ आज पहली बार आधिकारिक रूप से आकाशवाणी के उसी ट्रांसमीटर से प्रसारित हुई जिस पर कभी मेरी माँ, कभी मेरी स्वयं की और कभी मेरी बहन की आवाज़ सुनाई देती रही है. इस हिसाब से आज मेरे परिवार की तीसरी पीढ़ी रेडियो प्रसारण से जुड़ी.कुछ वैसा ही लग रहा है जैसे बड़े बड़े कलाकार कहते है कि पिछली इतनी पीढ़ियों से हम यह साज़ बजा रहे हैं या हम संगीत के खानदानी लोग हैं.आज कहीं यह अहसास हो रहा है कि हम ब्राडकास्टिंग के खानदानी लोग हैं.
खानदानी ब्राडकास्टिंग की बात सुन कर मेरी सहेली को हंसी आ रही है.उसे लगता है कि क्या रेडियो प्रसारण भी कोई इतनी सीरिअस आर्ट है जिसमे खानदानी होने का तमगा दिया जा सके! शायद सच ही कह रही है वो.आजके चकाचौंध भरे ग्लेमरस मीडिया जगत में परंपरागत रेडियो प्रसारण को कौन सीरियसली लेता है ? पर पूरे होशोहवास में मेरा मानना है कि ग्लेमरस और कामर्शिअल ब्राडकास्टिंग के मुकाबले परम्परागत पब्लिक सर्विस ब्राडकास्टिंग कहीं ज्यादा मुश्किल है. यह कुछ वैसी ही है जैसे स्टेज पर किसी मॉडल के सामने अपने घर की किसी भाभी, ताई,दीदी को खड़ा कर दिया जाय. निश्चित रूप से वोट मॉडल को ही ज़्यादा मिलेंगे पर क्या यह मॉडल हमारी भाभी,दीदी आदि की जगह ले सकेगी? नही ना ? पब्लिक सर्विस ब्राडकास्टर की भूमिका भी इन्ही घरेलू सदस्यों की तरह ही है यानी लोगों तक सही सूचना पहुंचाना और उनका सही मार्गदर्शन करना.पिछले बीस सालों के करिअर में बस यही करने की कोशिश करती रही हूँ और अपने श्रोताओं का भरपूर प्यार मिला है.मेरे प्रोफेशनल करियर में पब्लिक सर्विस ब्राडकास्टिंग की अनूठी सफलता की कहानियों की चर्चा फिर कभी. आज केवल सेलिब्रेशन का दिन है.मेरी बेटी ने इस क्षेत्र में अपने नन्हे कदम रखे हैं. यह भी एक अजब संयोग है कि शिवानी के पापा भी रेडियो ब्राडकास्टिंग से जुड़े रह चुके हैं.आशा करती हूँ कि वो हमारे इस खानदानी पेशे को नई ऊंचाइयों तक पहुचाएगी.शिवानी को अशेष स्नेह और शुभाशीष.
Saturday, May 07, 2011
माँ का खत
(मदर्स-डे पर माँ के लिए)
कल रात
इक खत को खोलते ही
बिजली चली गई.
माँ वो खत तुम्हारा ही है ना ?
अँधेरे में मैंने अक्षरों कों सहला कर देखा था
बड़े मुलायम थे हर्फ.
उन मुलायम हर्फों में बसी हैं
छोटे-छोटे रोजमर्रा के कामों को
ठीक से कर लेने की
वो ढेर सारी हिदायतें
जो तुम हर रोज दिया करती थी मुझे ऐसे
जैसे कि पहली बार बोल रही हो.
वो जूस के ग्लास
जो हर घंटे रख जाती थी तुम मेरी स्टडी-टेबल पर
परीक्षा के दिनों में
बिना भूले,
वो ढेर सारे कलफ लगे सूट और साडियाँ
जो तुम खुद धोकर रख जाती थी मेरी अलमारी में
हर रोज,बिना थके
क्यों कि तुम्हे मालूम था कि मुझे कॉटन कपड़े पसंद हैं,
वो शहद से मीठी तुम्हारी आवाज़,
वो हर पल दुआ देती तुम्हारी जुबां,
मुझसे जुदा होने पर बेहद नम
तुम्हारी वो दो आँखें,
हाँ माँ!
ये सब कुछ बसता है
तुम्हारे खत के उन मुलायम हर्फों में
जो मैंने अभी तक पढ़ा नहीं हैं
जो मैंने अभी केवल छुआ है.
कल रात
इक खत को खोलते ही
बिजली चली गई.
माँ वो खत तुम्हारा ही है ना ?
अँधेरे में मैंने अक्षरों कों सहला कर देखा था
बड़े मुलायम थे हर्फ.
उन मुलायम हर्फों में बसी हैं
छोटे-छोटे रोजमर्रा के कामों को
ठीक से कर लेने की
वो ढेर सारी हिदायतें
जो तुम हर रोज दिया करती थी मुझे ऐसे
जैसे कि पहली बार बोल रही हो.
वो जूस के ग्लास
जो हर घंटे रख जाती थी तुम मेरी स्टडी-टेबल पर
परीक्षा के दिनों में
बिना भूले,
वो ढेर सारे कलफ लगे सूट और साडियाँ
जो तुम खुद धोकर रख जाती थी मेरी अलमारी में
हर रोज,बिना थके
क्यों कि तुम्हे मालूम था कि मुझे कॉटन कपड़े पसंद हैं,
वो शहद से मीठी तुम्हारी आवाज़,
वो हर पल दुआ देती तुम्हारी जुबां,
मुझसे जुदा होने पर बेहद नम
तुम्हारी वो दो आँखें,
हाँ माँ!
ये सब कुछ बसता है
तुम्हारे खत के उन मुलायम हर्फों में
जो मैंने अभी तक पढ़ा नहीं हैं
जो मैंने अभी केवल छुआ है.
Sunday, May 01, 2011
लखनऊ : एक पानी-लविंग सिटी
लखनऊ एक ‘पानी-लविंग’ सिटी है.यहाँ पर पानी खूब और हर तरह का मिलता है.यहाँ हैंडपम्प हैं, जेट पम्प हैं, नल हैं, टोटियाँ हैं जिनमे भरपूर पानी आता है. सड़कों पर बम्बे का भी इंतजाम है पर इस सबसे लोगों का काम नही चल पाता इसलिए शहर में एक प्यारी-प्यारी “गोमा जी” भी बिराजती हैं जिनके बचे खुचे पानी में कुछ लोग छपर- छपर नहाते हैं.जो नही नहा पाते वे कपड़े धोकर चैन पाते है और जो कपड़े भी नही धो पाते वे कम्पटीटीव स्पिरिट के चलते अपनी भैंसों को एवजी पर नहाने भेज देते हैं.टॉपर टाइप के लोग नहाने-वहाने में विश्वास नही करते वे तो बस गोमती मैया को फूल-माला चढ़ा कर सीधे स्वर्ग में सीट रिजर्व कराते हैं. बाकी लोग टापते रह जाते हैं.
लखनऊ एक महान शहर है और ‘कम्पटीशन लडाना’ यहाँ के लोगों का प्रिय शौक है. यहाँ कहीं तो गगनचुम्बी इमारतों की आखिरी मंजिल तक भी पानी धड़ल्ले से आता है पर कुछ मोहल्लों के बेसमेंट में भी चुल्लू भर पानी तक नसीब नहीं. बस इसी जगह से कम्पटीशन शुरू हो जाता है.लोग शिकायत करने पर अमादा हों जाते हैं.सूचना के अधिकार का प्रयोग शुरू. “कृपया सूचना दें की हमारी कालोनी में आपने पानी क्यों नही दिया है?हमारे साथ भेदभाव क्यों किया है ?”अफसर अनुभवी हैं. उन्हें लोगों की अज्ञानता पर हंसी आ जाती है. जवाब भेज दिया गया है. “आप की कालोनी में भी भरपूर पानी उपलब्ध है. कृपया गढ्ढों और नालियों का अवलोकन करने का कष्ट करें जो पानी से लबालब भरे हैं.” लोग गढ्ढे और नालियां चेक करते हैं, अफसर की बात में सचमुच दम है. लोग अपनी गलती पर शर्म से पानी-पानी हों जाते हैं. अफसरों के सीने गर्व से चौड़े हों जाते हैं कि सूचना के अधिकार को भी कैसा पानी पिलाया है...!
लखनऊ में पढे लिखे लोग रहते हैं. उन्हें मालूम है कि पानी की गंदगी से हिपेटाइटिस,पीलिया,टायफाइड और दस्त-पेचिश जैसी बीमारियाँ हों जाती है. पढे लिखे लोग पानी की स्वच्छता की जांच की मांग करते हैं. नगरनिगम और जल-आपूर्ति विभाग के पास वक्त नही है.स्वास्थ्य विभाग परमार्थ के इस काम में आगे आता है. पानी की चेकिंग शुरू.जनता गदगद हों उठती है.नमूनों की जांच में ज्यादातर जगह पानी से क्लोरीन गायब है.जनता नाराज़ है पर उससे क्या? लोग धरने की धमकी देते हैं पर उससे क्या? अखबार में छपा है कि पानी में अभी केवल क्लोरीन चेक की गई है, बैक्टीरिया की चेकिंग तो अभी बाकी ही है.जनता अब बैक्टीरिया चेकिंग की मांग पर अड रही है. उसे अगले साल का आश्वासन मिलता है.जनता चिढ़ जाती है.एक बार फिर सूचना का हथियार हाँथ में है.जनता शायद भूल चुकी है कि अफसर हमेशा अनुभवी हुआ करते है.
अन्ततः बैक्टीरिया की जांच नही की जा सकी. महामारी में बहुतेरे लोग मारे गए.दिवंगत लोगों के परिजनों की आँख में पानी है.महामारी रिलीफ फंड बहुत तगड़ा आया है.अफसर के मुँह में पानी है.
लखनऊ एक पानी लविंग सिटी है.
(दैनिक हिंदुस्तान में दिनांक २६ अप्रैल २०११ को प्रकाशित.)
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