Wednesday, October 21, 2009

धर्म

वो मेरा सबसे प्यारा दोस्त
जिसकी निगाहें
साफ़ एकदम,
जिसका दामन
पाक एकदम.
जिसने
हर मौक़े पर मदद की है मेरी
और
डूब कर सिर तक
निकाला है मुझे
गहरी नदी के पेट से
न जाने कितनी बार !
पर
आज मौक़ा मेरा आया है
चलो तोड़ डालें उसका सर
चलो जला डालें उसका घर

उसका धर्म मुझसे अलग है.

32 comments:

दिनेशराय द्विवेदी said...

सुंदर कविता है, अंदर तक चोट करने वाली! बधाई!

M VERMA said...

उसका धर्म मुझसे अलग है.
तभी तो हमने भी अपना धर्म बदल लिया है मानवता से इतर ---
बहुत सुन्दर कविता

Arvind Mishra said...

भीष्म साहनी के उपन्यास तमस का एक दृश्य यही है ! बहुत मारक !

Mishra Pankaj said...

धर्म के विषय में ऐसी ही सोच रखनी चाहिए

ghughutibasuti said...

बहुत सही चोट करती हुई कविता लिखी है।
घुघूती बासूती

मनोज कुमार said...

यह सामयिक प्रश्नों का उत्तर देने के साथ-साथ जीवन के शाश्वत मूल्यों से भी जुड़ी है। मुनव्वर राना जी की दो पंक्तियां याद आती है ---
फजा़ में घोल दी है नफ़रतें अहले सियासत ने
मगर पानी कुंए से आज तक मीठा निकलता है।

सुशीला पुरी said...

चलों देख आयें जगत का तमाशा ,
सुना है वो काफिर मुसलमां भी है .

वाणी गीत said...

यह धर्मं है ....बिलकुल नहीं ...
गहरी सोच ...!!

Dr. Amarjeet Kaunke said...

meenu bahut hi pyari kavita hai....gahari nadi ka pet....kia baat hai aur dharnm par itna kathor kataksh....kamaal hai...

प्रज्ञा पांडेय said...

dharm ka sankeern chehara toh yahi hai .. par vastav men yeh nahin hai .. logon ne dharm ko badnaam kar diya hai .. aapki kavita padhkar shayad kuchh dharmaandh log aankhen kholen .. sahi jagah par chot hai .

ओम आर्य said...

MINOO JI


aapakaa khyaal bahut hi nek our pak hai ........ham bhi aapake saath hai

सर्वत एम० said...

एक नन्ही सी कविता में इतनी बड़ी बात इतनी आसानी से कह दी आपने! मैं तो स्तब्ध रह गया. पहली बार आपके ब्लॉग तक पहुंचा और दुखी हूँ कि पहुँचने में इतनी देर क्यों लगाई. आप बहुत अच्छा लिख रही है, इस लिखन को बरकरार रखते हुए और बुलंदियां हासिल कीजिए, मेरी यही दुआ है.

परमजीत सिहँ बाली said...

अपने मनोभावों को बहुत सुन्दर शब्द दिए हैं।

संगीता पुरी said...

क्‍या यही धर्म है .. कुछ सोंचने को मजबूर करती रचना !!

शिवम् मिश्रा said...

मीनू दीदी,
क्या बात कह दी आपने बातो बातो में !!
बहुत बढ़िया कविता !!
शुभकामनाएं !

rashmi ravija said...

ओह!! अन्दर तक झिंझोड़ डाला इस कविता ने....क्यूँ करते हैं लोग ऐसा...क्यूँ भूल जाते हैं लोग सबकुछ, और याद रह जाता है सिर्फ धर्म....सोते मन को जगाने वाली कविता...बेहतरीन

अनिल कान्त said...

चोट करती हुई रचना

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

bahut achchi lagi yeh post....

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

धर्म का स्वरूप आज इतना विकृत हो गया है कि अब उस पर पाबंदी लगाने पर सोच सिचार होना चाहिए।
कल मैंने भी इसी विषय पर एक पोस्ट लिखी है और आज आपकी रचना पढ रहा हूं। सही है, जो सच है, वही तो सामने आएगा, उसे हम और आप कैसे रोक सकते हैं?
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }

Creative Manch said...

चलो जला डालें उसका घर
उसका धर्म मुझसे अलग है.

चोट करती हुई बहुत सुन्दर कविता
कविता में बड़ी बात कह दी आपने!
शुभकामनाएं

janta ki aawaz said...

bahut hi sunder tarike se samaaj ki baat sabke saamne rakkhi hai aap ne ye wahi baate hai jinhe samaaj jaanta to hai par maanne se inkaar karta hai ........

दिगम्बर नासवा said...

छदम धर्म पर प्रहार करती लाजवाब रचना है ............ मनुष्य धर्म को अक्सर लोग पहचानते नहीं हैं ........... गहरी सोच से उपजी रचना है ......... करार प्रहार है समाज पर ........... लाजवाब ........

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" said...

उसका धर्म मुझसे अलग है....

बहुत खूब... धर्म की आड में पनपते अधर्म पर एक गहरी चोट करती कविता....

रचना दीक्षित said...

bahut satik vyag hai hamari apni mansikta par
aabhar

शरद कोकास said...

बिलकुल ध्यान से पढ़ी है अच्छी कविता है ..पत्रिकाओं मे भी भेजिये ।

हरकीरत ' हीर' said...

पर
आज मौक़ा मेरा आया है
चलो तोड़ डालें उसका सर
चलो जला डालें उसका घर

उसका धर्म मुझसे अलग है.

वाह....वाह....व्व्व्व्व्व्वाह ........!!

बेहद सटीक .....!!

Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय) said...

waah waah...bahut achhe

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

बहुत खूब !सुन्दर

रवि रतलामी said...

कृपया हिन्दी में लिखें वाला गूगल ट्रांसलिट्रेटर गॅजेट यदि आवश्यक न हो तो हटा दें. जब आपके ब्लॉग का पेज लोड होता है तो वो पेज को वही हाईजैक कर लेता है, और पेज दिखाने में समस्या पैदा करता है. इसके बदले इसका एक लिंक दे सकते हैं.

Meenu Khare said...

धन्यवाद रवि जी.सन्दर्भित गजेट हटा दिया है.

योगेन्द्र मौदगिल said...

Wah.....Bhavotprerak rachna..wah

Smart Indian said...

"उसका धर्म मुझसे अलग है"
लाजवाब कविता!

प्यार देते तो प्यार मिल जाता
कोई बेबस दुत्कार क्यूं पाता

रहनुमा राह पर चले होते
तो दरोगा न रौब दिखलाता

मेरा रामू भी जी रहा होता
तेरा जावेद भी खो नहीं जाता

सर से साया ही उठ गया जिनके
दिल से फ़िर खौफ अब कहाँ जाता

बच्चे भूखे ही सो गए थक कर
अम्मी होती तो दूध मिल जाता

जिनके माँ बाप छीने पिछली बार
रहम इस बार उनको क्यों आता?

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