Thursday, October 26, 2017

दीपक अभी अभी जले हैं




गुलाबी ठंड 
सुरमयी शाम का वक़्त
दीपक बस अभी अभी जले हैं
फ़िज़ाओं में फैली अजब सी कैफ़ियत 
रूमानियत और सिहरन
अपनी चोटी में गुँथे  
बेले के गजरे की छुअन से सिहर मैं
देखती हूँ चारों ओर 
तुम अक्षर-अक्षर आने लगते हो शब्दों में
लिखने लगती हूँ कविता 
बनने लगते हैं भावनाओं के ख़ूबसूरत महल 
मोहब्बत की ख़ूबसूरत खिड़कियों से 
झाँकते दिखते हैं कुछ अनचीन्हे अक्स
पास जाती हूँ देखने 
अक्स अदृश्य डर का है 
पाने से भी पहले 
तुम्हें खो देने का 
कविता लिख ली गई है
शाम गहराने लगी है 

दीपक अभी भी जल रहे हैं

3 comments:

Anonymous said...

Highly energetic article, I liked that bit. Will there
be a part 2?

Kailash said...

Very nice

Kailash said...

Very nice

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