(वैलेंटाइन-डे पर एक टीनेजर की नोटबुक से कविता )
तुम्हारे प्यार की घंटी को बजना है,
मेरे सोये हुए मन को जगाने के लिए
पर तुम्हारे हाथ
कभी उस ओर बढते हुए नही पाए गए.
मेरे चारो ओर खड़े लोगों में से
कुछ की फुसफुसाहट सरकती हुई
मेरे कानो में घुसती है
कि मैं किसी भी तरह
खींच लाऊँ तुम्हारे हाथों को
घंटी तक
जिसे बजना है
पर
मेरी कोमल भावनाएँ
बहुमूल्य हैं
उन्हें मैं छोटे-छोटे मदों में खर्च नही करती...
सहेज कर रखती हूँ
अपने मन के बैंक में.
बड़ी खुद्दार हैं मेरी भावनाएँ
बिलकुल मेरी तरह.
Sunday, February 13, 2011
Tuesday, February 08, 2011
सहरा वो बसंती है ये गुलज़ार बसंती
(अमानत लखनवी की गज़ल)
है जलवा-ए-तन से दर-ओ-दीवार बसंती
पोशाक जो पहने है मेरा यार बसंती
गैंदा है खिला बाग़ में मैदान में सरसों
सहरा वो बसंती है ये गुलज़ार बसंती
गैंदों के दरख़तों में नुमाया नहीं गेंदे
हर शाख़ सर पे है ये दस्तार बसंती
मुंह ज़र्द दुप्पट्टे के आंचल में ना छुपाओ
हो जाए ना रंग-ए-गुल-ए-रुख़सार बसंती
फिरती है मेरे शौक़ पे रंग की पोशाक
ऊदी, अगरी चंपई गुलनार बसंती
है लुत्फ़ हसीनों की दो रंगी का 'अमानत'
दो चार गुलाबी हों तो दो चार बसंती
----अमानत लखनवी
है जलवा-ए-तन से दर-ओ-दीवार बसंती
पोशाक जो पहने है मेरा यार बसंती
गैंदा है खिला बाग़ में मैदान में सरसों
सहरा वो बसंती है ये गुलज़ार बसंती
गैंदों के दरख़तों में नुमाया नहीं गेंदे
हर शाख़ सर पे है ये दस्तार बसंती
मुंह ज़र्द दुप्पट्टे के आंचल में ना छुपाओ
हो जाए ना रंग-ए-गुल-ए-रुख़सार बसंती
फिरती है मेरे शौक़ पे रंग की पोशाक
ऊदी, अगरी चंपई गुलनार बसंती
है लुत्फ़ हसीनों की दो रंगी का 'अमानत'
दो चार गुलाबी हों तो दो चार बसंती
----अमानत लखनवी
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