(वर्ल्ड एड्स दिवस पर)
मेरे शरीर में रहता है एक वायरस
वैसे ही
जैसे अपने शरीर में रहता हूँ मैं खुद...
वैसे ही
जैसे रहते हैं यहाँ
खून,पानी,ऑक्सीजन,साँसें,
फेफड़े,गुर्दे,
चिंता ,
मुस्कुराहटें,
ह्ताशाएँ,निराशाएँ,आशाएँ...
लोग बताते हैं
वायरस बहुत खतरनाक है.
लोग खतरों से डरते हैं
इसीलिए लोग वायरस से डरते हैं
इसीलिए लोग मुझसे भी डरते हैं
क्यों की मेरे ही तो शरीर में वायरस रहता है...
मैं वायरस से नही डरता
जो हमेशा साथ रहे उससे क्या डरना?
वो खतरनाक है
पर वो हमेशा मेरे साथ रहेगा,
मेरी अंतिम साँस तक ...
वो मुझे छोड़ कर कभी नही जाएगा
जैसे मेरे सभी दोस्त एक-एक कर चले गए
मुझे छोड़ कर
वायरस के कारण...
मरने से भी ज्यादा
मुझे 'छोड़े जाने' से डर लगता है
इसीलिए मुझे
वायरस से नही
दोस्तों से डर लगता है.
Tuesday, November 30, 2010
Saturday, November 20, 2010
वो जो नदी है
(कार्तिक-पूर्णिमा पर )
वो जो नदी है
उसमे रहती हैं ढेर सारी मछलियां
जिन्हें बचपन में
आटे की गोलियाँ खिलाई थी मैंने
अपने बाबा के साथ
घाट की सबसे निचली सीढ़ी पर खड़े होकर .
वो जो नदी है
बसती हैं उसमे ढेर सारी डुबकियाँ
नाक बंद करके लगाई थी जो मैंने
गहरे पानी में
अपनी दादी का हाथ पकड़कर.
उसी नदी में बसती है
तैरने से पहले
छपाक से कूदने की न जाने कितनी आवाजें
नावों की हलचलें
कमर तक डूब कर सूर्य को दिए गए अर्घ्य
पियरी चढ़ाने की मन्नतें
तुलसी पूजा के बिम्ब
हर हर महादेव की गूँज
हरे पत्ते के दोनों में
पानी पर तिरते दीपक
और ढेर सारा पॉलिथीन.
वो जो नदी है
उसमे रहती हैं ढेर सारी मछलियां
जिन्हें बचपन में
आटे की गोलियाँ खिलाई थी मैंने
अपने बाबा के साथ
घाट की सबसे निचली सीढ़ी पर खड़े होकर .
वो जो नदी है
बसती हैं उसमे ढेर सारी डुबकियाँ
नाक बंद करके लगाई थी जो मैंने
गहरे पानी में
अपनी दादी का हाथ पकड़कर.
उसी नदी में बसती है
तैरने से पहले
छपाक से कूदने की न जाने कितनी आवाजें
नावों की हलचलें
कमर तक डूब कर सूर्य को दिए गए अर्घ्य
पियरी चढ़ाने की मन्नतें
तुलसी पूजा के बिम्ब
हर हर महादेव की गूँज
हरे पत्ते के दोनों में
पानी पर तिरते दीपक
और ढेर सारा पॉलिथीन.
Sunday, November 14, 2010
एक कविता : पत्थरों के नाम
(बाल दिवस पर )
यह कविता
घर के बर्तनों के नाम
धोते हैं जिन्हें छोटे छोटे हाथ हर रोज हमारे घरों में
गर्मी,बरसात या फिर कडकडाती ठंड में.
उन झाडुओं के नाम
जिन्हें मजबूती से पकड़ कर बुहारी जाती है संगमरमरी फर्श
और पूरी ताकत झोंक दी जाती है पोंछे से उसे चमकाने में
हर रोज दोनों जून
किसी एक जून पेट भरने की जुगाड़ में.
यह कविता नही है
चमचमाती प्लेटों में उपेक्षा से छोड़े गए
आलू के पराठों और पनीर सैंडविचों के नाम
यह कविता है
भिनभिनाती मक्खियों के बीच
कूड़े में पड़े बिस्कुटों, डबलरोटियों के नाम
जिन्हें परहेज़ नही है
किसी नन्हे पेट में नाश्ता बन कर जाने में.
यह कविता नही है
रंग बिरंगे बैगों, टिफिनों और स्कूलों के नाम
यह कविता है
जिंदगी की उन बदसूरत सच्चाइयों के नाम
जो बिना किसी एडमिशन पढ़ा डालती है
बहुत कुछ
बहुत कम समय में
बहुत कम उम्र में.
यह कविता नही है
नेहरु चाचा और गुलाबों के नाम
यह कविता है
मोहल्ले के
उन सभी चाचा,फूफा, मामा
और एकांत के नाम
जिसके बारे में जबान नही खुल पाती है
किसी भी
गुड़िया,पूनम, पिंकी और गरीब सुनीता की.
यह कविता सपनीले बचपन के सजीले मन के नाम नही
बल्कि
उन असंख्य पत्थरों के नाम
जिनसे मिल कर बने है दिल
हमारे
आपके
हम सबके.
यह कविता
घर के बर्तनों के नाम
धोते हैं जिन्हें छोटे छोटे हाथ हर रोज हमारे घरों में
गर्मी,बरसात या फिर कडकडाती ठंड में.
उन झाडुओं के नाम
जिन्हें मजबूती से पकड़ कर बुहारी जाती है संगमरमरी फर्श
और पूरी ताकत झोंक दी जाती है पोंछे से उसे चमकाने में
हर रोज दोनों जून
किसी एक जून पेट भरने की जुगाड़ में.
यह कविता नही है
चमचमाती प्लेटों में उपेक्षा से छोड़े गए
आलू के पराठों और पनीर सैंडविचों के नाम
यह कविता है
भिनभिनाती मक्खियों के बीच
कूड़े में पड़े बिस्कुटों, डबलरोटियों के नाम
जिन्हें परहेज़ नही है
किसी नन्हे पेट में नाश्ता बन कर जाने में.
यह कविता नही है
रंग बिरंगे बैगों, टिफिनों और स्कूलों के नाम
यह कविता है
जिंदगी की उन बदसूरत सच्चाइयों के नाम
जो बिना किसी एडमिशन पढ़ा डालती है
बहुत कुछ
बहुत कम समय में
बहुत कम उम्र में.
यह कविता नही है
नेहरु चाचा और गुलाबों के नाम
यह कविता है
मोहल्ले के
उन सभी चाचा,फूफा, मामा
और एकांत के नाम
जिसके बारे में जबान नही खुल पाती है
किसी भी
गुड़िया,पूनम, पिंकी और गरीब सुनीता की.
यह कविता सपनीले बचपन के सजीले मन के नाम नही
बल्कि
उन असंख्य पत्थरों के नाम
जिनसे मिल कर बने है दिल
हमारे
आपके
हम सबके.
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दिल,
नेहरु चाचा
Thursday, November 04, 2010
आओ दिया जला दें
इस दीवाली पर दीपों के बन्दनवार सजा दें
हर सूने मन के आंगन में आओ दिया जला दें.
सूनी गलियाँ सूनी सडकें सूने गलियारे हैं
सूना जीवन सूनी मांगें कितने अंधियारे हैं
आओ मिल इन अंधियारों को उजियारों का पता दें
हर सूने मन के आंगन में आओ दिया जला दें.
सुधि की तंग सुरंगों में चलो झांक हम आएँ
भूले बिछड़े संगी साथी सबको आज बुलाएँ
एक साथ सब मिल कर खाएं लड्डू खील बताशे
हर सूने मन के आंगन में आओ दिया जला दें.
चौखट के दीपक से करना इतनी अरज हमारी
रौशन रखना हर देहरी को घड़ी उमर भर सारी
खुशियों की बारात सजे और छूटें खूब पटाखे
हर सूने मन के आंगन में आओ दिया जला दें.
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