(अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष)
बचपन से सुना था
माँ के मुँह से
कि
यह घर मेरा नहीं है
जब मैं बड़ी हो जाऊँगी
तो मुझे
शादी होकर जाना है
अपने घर.
शादी के बाद
ससुराल में सुना करती हूँ
जब तब...
अपने घर से क्या लेकर आई है
जो यहाँ राज करेगी?
यह तेरा घर नही है,
जो अपनी चलाना चाहती है...
यहाँ वही होगा जो हम चाहेंगे,
यह हमारा घर है, हमारा !
कुछ समझी?
24 comments:
मुझे तो लगता है कि दो घर हो जाते हैं जहां नारी को नारी समझा जाता है.
आखिर कौन सा घर उसका अपना है --
सुन्दर सवाल सार्थक
"नारी को घर की क्या आवश्यकता वो जहाँ जाएगी वही जगह घर बन जायेगा......."
प्रणव सक्सैना
amitraghat.blogspot.com
कशमकश को बहुत अच्छे से बयाँ किया है दी.... बहुत सुंदर रचना....
लड़का केवल एक कुल का चिराग होता है ,
जबकि लड़की दोनों कुलों को रौशन करती है !
Naari man ki is pida ko bakhubi bayaan kiya aapane...kintu stya yahi hai ki jo ghar stri ka hojata hai wahi shanti aur sukh ka vas hota hai!!
Happy Women's Day
इस चारदीवारी के घर को छोड़िये अगर नारी न होती तो दुनिया मे घर का कॉंसेप्ट ही नही होता ।
बहुत अच्छी कविता।
एक शे’र याद आ गया
सारी शोखी, हंसी, शरारत, छोड़ कहां पर आई है,
मुझे छोड़ सब समझ गए, बिटिया ससुराल से आई है।
हाय!! ये कैसी विडंबना है!
मनोज जी इस लाजवाब शेर के लिए धन्यवाद.
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मीनू खरे
घर की तमन्ना हर किसी की होती है .....शरद जी ने सही लिखा की ''स्त्री जहाँ जाएगी वहीं घर आबाद होगा '' पर मर्दवादी सोच अभी तक ये बात नही समझ पाई ...''घर '' की अवधारणा ही औरत के होने से शुरू हुई तो फिर ये सामंतवादी सोच
क्यों नही समझना चाहती की घर जिसकी वजह एस बना ,घर उसका पहले है या साझा दोनों का है ?
यही द्वन्द सार्थक रचनाधर्मिता से भटका देता है...।
हां ! बोध हो जाय फिर,
सारा जीवन सुखमय हो जाय ।
मीनू जी .. छोटी छोटी आपकी बातें नश्तर की तरह घाव करती हैं . बहुत अच्छा लिखती हैं .
और इस द्वंद में जिंदगी बीत जाती है .... समाज की सोच में कब परिवर्तन होगा ... जबकि घर तभी घर बनता है जब नारी होती है ........
मीनू जी कविता सुन्दर है ,लेकिन मेरा भी यही कहना है की नारी के १ से२ घर हो जाते हैं.
बहुत सुन्दर कविता, मीनू जी..... प्रख्यात कथालेखिका शिवानी का लिखा कहीं पढ़ा था कि..,"रानी हो या गोली (दासी)...दिल पर हाथ रख कर नहीं कह सकती कि 'ये घर तो मेरा है"
मीनू जी आपका बहुत बहुत धन्यवाद ,आपने बहुत सुंदर टिप्पणी की थी ,लेकिन वह कुछ गडबडी का शिकार हो गई,अगर समय हो तो फिर से देख लीजियेगा !
अपनी पोस्ट 'खम्भे जैसी खड़ी है' याद आई:
क़ोट कर रहा हूँ:
"... हुँह .. याद नहीं आता कभी तुमने ये कहा हो। छ्ल क्षद्म झेल, काले धन का खेल देख और शुभचिंतकों की मिट्टी पलीद कर जब झुके मन निराश आता तो तुम्हारे आस जगाते एक दो बोल सुनता और तन जाता एक खम्भा - झुका मन खुल कर आकाश हो जाता।
.. आज 'अपना घर' है जिसमें सिविल इंजीनियरिंग और वास्तुविद्या की मान्यताएँ नहीं के बराबर हैं - अनगढ़ घर लेकिन अनेकों आर सी सी के खम्भों के बीच एक घूमता खम्भा है, वह इस 'अनगढ़' को 'गढ़' बनाता है - वह तुम हो।"
When u become a mother in law you can tell ur "DIL(daughter-in-law)" that this is MY HOUSE"..
nahi tho bhi yek aurath ki number one sathru yak purush nahi bal ki aur yak ourath hai!!!
बेहद प्रासंगिक बात...नारी के बिना घर ही नहीं हर कुछ अधूरा है..सुन्दर सन्देश !!
बेहद प्रासंगिक बात...नारी के बिना घर ही नहीं हर कुछ अधूरा है..सुन्दर सन्देश !!
बहुत बढ़िया कविता..
स्त्री-मन और स्त्री-जीवन की उलझनों का बहुत सुन्दर चित्रण किया है आपने अपनी पंक्तियों में..
कुछ इन्हीं भावनाओं को लेकर कवियित्री अनामिका की कविता 'बेजगह' भी है.. आप इसे यहाँ पढ़ सकते हैं..
http://www.nirmansamvad.com/News/06-Mar-2010/Page12.aspx
meenu ji ,
kadwa sach ..............
behad maarmik abhivyakti
aapki kabita acchi hai
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