/पिछले २ अक्टूबर २००८ की शाम गांधीजी के तीन बंदर राज घाट पे आए. और एक-एक कर गांधी जी से बुदबुदाए, पहले बंदर ने कहा- ''बापू अब तुम्हारे सत्य और अंहिंसा के हथियार, किसी काम नही आ रहे हैं । इसलिए आज-कल हम भी एके४७ ले कर चल रहे हैं। ''
दूसरे बंदर ने कहा- ''बापू शान्ति के नाम , आज कल जो कबूतर छोडे जा रहे हैं, शाम को वही कबूतर,नेता जी की प्लेट मे नजर आ रहे हैं । ''
तीसरे बंदर ने कहा- ''बापू यह सब देख कर भी, हम कुछ कर नही पा रहे हैं । आख़िर पानी मे रह कर , मगरमच्छ से बैर थोड़े ही कर सकते हैं ? ''
तीनो ने फ़िर एक साथ कहा -- ''अतः बापू अब हमे माफ़ कर दीजिये, और सत्य और अंहिंसा की जगह ,कोई दूसरा संदेश दीजिये। ''
इस पर बापू क्रोध मे बोले- '' अपना काम जारी रखो, यह समय बदल जाएगा । अमन का प्रभात जल्द आयेगा । ''
गाँधी जी की बात मान, वे बंदर अपना काम करते रहे। सत्य और अंहिंसा का प्रचार करते रहे । लेकिन एक साल के भीतर ही , एक भयानक घटना घटी । इस २ अक्टूबर २००९ को , राजघाट पे उन्ही तीन बंदरो की, सर कटी लाश मिली । Posted by DR.MANISH KUMAR MISHRA at 08:03 0 comments Labels: hindi kavita. hasya vyang poet, गाँधी जी के तीन बंदर Reactions:
हालांकि आपकी कविता के बारे में पहले भी कमेंट कर चुका हूं, पर आज आका तअर्रूफ देखा, उसमें दिया शेर बहुत प्यारा है। एक छोटा सा सुझाव है उसमे आपने अजीब शब्द इस्तेमाल किया है, मेरी समझ से वहाँ पर अजब होना चाहिए। क्योंकि अजीब से शेर का वज्न गडबड हो रहा है। -Zakir Ali ‘Rajnish’ { Secretary-TSALIIM & SBAI }
29 comments:
वाह .... नया अंदाज़ अच्छा लगा
क्ब तक जुडे रहेंगे ये जोड
आज नही तो कल --
बहुत सुन्दर
aaj ka yatharth ye hee hai |Bahut hee acchee rachana|
badhai
क्या बात है, अंदाज बदला लेकिन बात वही रही।
ओह!! आज की कविता!!
जय हो, बधाई.
बहुत सुन्दर भाव ।
विवशता का फेविकोल ? वाह ! बहुत कमजोर होता है यह।
वाह ! क्या गजब ! बेहद खूबसूरत ।
और सोशल इंजीनियरिंग मीनू जी ? यह क्षणिका तो सचमुच लाजवाब है !
Is 'social adjusment' ne...
Emotional kar dala !!
hazarron example bhare pade hai meri zindagi main is 'social adjusment' ke....
...afsoos Fevicol ka majbbot (?) jod hai tootega nahi !!
:(
केवल कुछ पंक्तियों में सुन्दर अभिव्यक्ति!! जैसे कि गागर में सागर!!!
मन के बारे माँ प्यारी सी अभिव्यक्ति !
अति सुंदर !
न चाहते हुए भी करना ही पडता है।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
क्षणिका तो बहुत अच्छी है, पर ये नारी मन कब तक एडजस्ट करता रहेगा?
जो भी है सूरते हालात कहो, चुप न रहो,
रात अगर है तो उसे रात कहो, चुप न रहो।
/पिछले २ अक्टूबर २००८ की शाम
गांधीजी के तीन बंदर राज घाट पे आए.
और एक-एक कर गांधी जी से बुदबुदाए,
पहले बंदर ने कहा-
''बापू अब तुम्हारे सत्य और अंहिंसा के हथियार,
किसी काम नही आ रहे हैं ।
इसलिए आज-कल हम भी एके४७ ले कर चल रहे हैं। ''
दूसरे बंदर ने कहा-
''बापू शान्ति के नाम ,
आज कल जो कबूतर छोडे जा रहे हैं,
शाम को वही कबूतर,नेता जी की प्लेट मे नजर आ रहे हैं । ''
तीसरे बंदर ने कहा-
''बापू यह सब देख कर भी,
हम कुछ कर नही पा रहे हैं ।
आख़िर पानी मे रह कर ,
मगरमच्छ से बैर थोड़े ही कर सकते हैं ? ''
तीनो ने फ़िर एक साथ कहा --
''अतः बापू अब हमे माफ़ कर दीजिये,
और सत्य और अंहिंसा की जगह ,कोई दूसरा संदेश दीजिये। ''
इस पर बापू क्रोध मे बोले-
'' अपना काम जारी रखो,
यह समय बदल जाएगा ।
अमन का प्रभात जल्द आयेगा । ''
गाँधी जी की बात मान,
वे बंदर अपना काम करते रहे।
सत्य और अंहिंसा का प्रचार करते रहे ।
लेकिन एक साल के भीतर ही ,
एक भयानक घटना घटी ।
इस २ अक्टूबर २००९ को ,
राजघाट पे उन्ही तीन बंदरो की,
सर कटी लाश मिली ।
Posted by DR.MANISH KUMAR MISHRA at 08:03 0 comments
Labels: hindi kavita. hasya vyang poet, गाँधी जी के तीन बंदर
Reactions:
chhanika aakarshit karatii hai
सार्थक भावों की अभिव्यक्ति।
पूनम
meenu ji ab to bajar me fevicol bhi nakli aane laga hai.
aapka yah andaaj bhaaya.......kavita achchi lagi
VAAH ......... BAHOOT HI LAJAWAAB, VASTVIKTA KE KAREEB, SATY KI ABHIVYAKTI HAI.......... YEH CHOTI SI RACHNA GAHRI BAT KAH GAYEE ...
मीनू जी आपकी कवितायें व्यंग लिए हुए गहरी चोट करती हैं ....आपकी ये खाशियात अच्छी लगती है ...!!
Waah!aapka andaze bayaan.har waqt nirala hita hai..behad achhee fankaar hain!
http://shamasansmaran.blogspot.com
http://aajtakyahantak-thelightbyalonelypath.blogsot.com
http://baagwaanee-thelightbyalonelypath.blogspot.com
http://kavitasbyshama.blogspot.com
kabhee nazre inayat kareN
'सोशल इंजीनियरिंग' भी तो कह सकते हैं.........मीनू जी ! कम शब्दों में बडी बात कही है आपने .
बिल्कुल सही कहा आपने ........हर कदम पर तो टुटती ही है ......
@अरविन्द जी
@सुशीला जी
आप लोगों के सुझाव पर मै इस कविता का शीर्षक "सोशल इंजीनियरिंग" करने की सोच रही हूँ...
हालांकि आपकी कविता के बारे में पहले भी कमेंट कर चुका हूं, पर आज आका तअर्रूफ देखा, उसमें दिया शेर बहुत प्यारा है।
एक छोटा सा सुझाव है उसमे आपने अजीब शब्द इस्तेमाल किया है, मेरी समझ से वहाँ पर अजब होना चाहिए। क्योंकि अजीब से शेर का वज्न गडबड हो रहा है।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
धन्यवाद ज़ाकिर ! आपकी बात बिल्कुल ठीक थी.वांछित परिवर्तन कर दिया है.
bahut khoo kahi..
social adjustment ko accha paribhashit kiya..
badhai..
विवशता का फ़ेवीकोल लगा कर
जोड़ा जाता है मन...
सोशल एडजस्टमेंट इसी को तो कहते हैं !
wah
WAH
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