Friday, October 16, 2009

मकानों के इस जंगल में दीपावली


इस बार पारिवारिक कारणों से दीपावली नही मना रही हूँ. पता नही क्यों आज याद आ रहा है वर्ष 1993..उस साल भी दीपावली नही मनाई थी.हुआ यह कि उस समय नई-नई नौकरी लगी थी.बनारस में पहली पोस्टिंग..और किसी अति-मह्त्वपूर्ण आयोजन की ज़िम्मेदारी मेरी थी. दीपावली पास ही थी. हालाँकि सन्दर्भित आयोजन दीवाली के बाद होना था पर निदेशक महोदय ने घर(लखनऊ)आने की अनुमति मेरे लाख अनुरोध पर भी नहीं दी थी.बहुत मलाल हुआ था कि सर ने दीपावली के लिए भी छुट्टी नही दी. उस समय कच्चा मन था. "यह सब नौकरी में आम बात है" इस बात की समझ तब तक नही विकसित हो पाई थी .बनारस में सिगरा की सम्पूर्णानन्द नगर कालोनी में, अपने कमरे में, दीवाली की शाम अकेले बैठ कर एक कविता लिखी थी वो आज आपके सम्मुख प्रस्तुत है.


सन्ध्या के सुरमई क्षणों में
मकानों के इस जंगल में
रह-रह कर जलते
बिजली के छोटे-छोटे बल्बों का स्पन्दन
याद दिला रहा है
कि आज दीपावली है.


हरे, नीले, सुरमई, गुलाबी..
जीवन के किसी भी रंग की
कोई खास अहमियत न हो जँहा,
संगमरमर की दूधिया फ़र्श पर सजी
रंगोली की लकीरों का गेरूई रंग
याद दिला रहा है
कि आज दीपावली है.


फुलझड़ियों की जगमगाहट
बर्तनों की चमचमाहट
पटाखों की गड़्गड़ाहट
और चूड़ियों की छनछनाहट के बीच
जब सब कुछ भूलता भूलता सा लगे
लक्ष्मी-पूजन का
गृहलक्षमी द्वारा आस्थापूर्वक श्रीगणेश
एकाएक याद दिला रहा है
कि आज दीपावली है.


प्रियजन से दूर
उपवन से दूर
अपनो से दूर
इस अजनबी से देश में
आँखों की एक कोर से दूसरे कोर तक फैले
गहरे समुद्र में,
बार-बार छलक आए
कुछ मोतियों का अपरिभाषित, अनाम रंग
बार बार याद दिला रहा है
कि सचमुच आज ही दीपावली है.

22 comments:

चौहान said...

Meenu Ji Aapp Ke Sath Ek Aur Parivar Jur Gaya Hai Blogger Parivar Aap Ham Sabhi Ke Sath Depawali Mana Lijiye

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

फुलझड़ियों की जगमगाहट
बर्तनों की चमचमाहट
पटाखों की गड़्गड़ाहट
और चूड़ियों की छनछनाहट के बीच......आपको दीपावली की ढेरो शुभकामनाये !

Yunus Khan said...

कविता के और नौकरी की मजबूरी के, दोनों ही अहसास दिल को छूते हैं । इस साल पारिवारिक कारणों से हम भी दीवाली नहीं मना रहे हैं ।

Smart Indian said...

कविता अपने उद्देश्य में सफल रही.
आपके उस निदेशक जैसे काठ के उल्लूओं के बारे में पढता और सुनता हूँ तो सोचता हूँ कि ऐसे कुंठित और मनहूस लोग अपने अन्दर के अँधेरे को कब तक अपने मातहतों पर थोपते रहेंगे?

आपको और आपके पूरे परिवार को दीपावली की मंगल कामनाएं

मनोज कुमार said...

सरकारी कर्मचारी के जीवन के अवसाद के क्षणों में रची यह रचना ज़िंदगी के सरोकारो के संघर्ष को नए अर्थों में बयान करने की कोशिश है जो भावावेग की स्थिति में अभिव्यक्ति की स्वाभाविक परिणति दीखती है।

Udan Tashtari said...

सचमुच आज दीवाली है:

सुख औ’ समृद्धि आपके अंगना झिलमिलाएँ,
दीपक अमन के चारों दिशाओं में जगमगाएँ
खुशियाँ आपके द्वार पर आकर खुशी मनाएँ..
दीपावली पर्व की आपको ढेरों मंगलकामनाएँ!

-समीर लाल ’समीर’

36solutions said...

आपको दीपावली की हार्दिक शुभकामनांए मीनू जी.

Mishra Pankaj said...

दीपो के इस त्यौहार में आप भी दीपक की तरह रोशनी फैलाए इस संसार में
दीपावली की शुभकामनाये
पंकज मिश्र

शरद कोकास said...

सही है पर्व का अर्थ ही है अपनो के बीच होना । अकेले अकेले भी कहीं त्योहार होता है लेकिन यह भी सच है कि कवि कभी अकेला नहीं होता , वरना आपकी यह रचना कैसे पढने को मिलती ।

Creative Manch said...

बहुत ही अच्‍छी कविता


सुख, समृद्धि और शान्ति का आगमन हो
जीवन प्रकाश से आलोकित हो !

★☆★☆★☆★☆★☆★☆★☆★
दीपावली की हार्दिक शुभकामनाए
★☆★☆★☆★☆★☆★☆★☆★


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M VERMA said...

सन्ध्या के सुरमई क्षणों में
मकानों के इस जंगल में
रह-रह कर जलते
बिजली के छोटे-छोटे बल्बों का स्पन्दन
याद दिला रहा है
कि आज दीपावली है.
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति दिया था आपने. सिगरा वास्तव मे मकानो का जंगल ही है.
दिवाली की हार्दिक मंगलकामना

Randhir Singh Suman said...

दीपावली, गोवर्धन-पूजा और भइया-दूज पर आपको ढेरों शुभकामनाएँ!

Unknown said...

मीनू जी, मैं जानता हूँ कि दीपावली के दिन घर परिवार से दूर रह जाने का दर्द क्या होता है। मेरे साथ भी सन् 1973 में, जबकि मेरी नौकरी लगी थी, ऐसा ही हो चुका है।

दीपोत्सव का यह पावन पर्व आपके जीवन को धन-धान्य-सुख-समृद्धि से परिपूर्ण करे!!!

sandhyagupta said...

Dipawali ki dheron shubkamnayen.

शिवम् मिश्रा said...

मीनु दीदी,
आप सब को दिवाली की बहुत बहुत शुभकामनाएँ !

सुशीला पुरी said...

दिया आपकी दहलीज पर रोज जला करे ,
हर फूल आपके आँगन में खिला करे .

DIVINEPREACHINGS said...

अत्यंत सुन्दर है आपकी कविता.......
दीपावली पर बहुत-बहुत शुभकामनाएँ....

अनूप शुक्ल said...

संवेदनशील कविता।

Sanjay Grover said...

achchha laga aapka blog. KaviyayeN, suchnayeN, Sansmaran...bahut kuchh hai yahaN.

दिगम्बर नासवा said...

प्रियजन से दूर
उपवन से दूर
अपनो से दूर
इस अजनबी से देश में
आँखों की एक कोर से दूसरे कोर तक फैले
गहरे समुद्र में,
बार-बार छलक आए
कुछ मोतियों का अपरिभाषित, अनाम रंग
बार बार याद दिला रहा है
कि सचमुच आज ही दीपावली है....

कभी कभी समय ऐसे खेल दिखलाता है ........... अपनों से दूर, खुशियों से दूर रह कर भी त्यौहार मनाना पढता है ....... ऐसे में बस यादें ही सहारा होती हैं ................ आपने इस रचना में गहरी संवेदना लिखी है ......... बहुत लाजवाब रचना है ..............
ये दीपावली आपके जीवन में नयी नयी खुशियाँ ले कर आये .........
बहुत बहुत मंगल कामनाएं .........

दर्पण साह said...

प्रियजन से दूर
उपवन से दूर
अपनो से दूर
इस अजनबी से देश में
आँखों की एक कोर से दूसरे कोर तक फैले
गहरे समुद्र में,
बार-बार छलक आए
कुछ मोतियों का अपरिभाषित, अनाम रंग
बार बार याद दिला रहा है
कि सचमुच आज ही दीपावली है.


samudra ke badle battiyon ki katar karke isko meri tippani maan lijiyea....
aapka 1999 mera 2009 hua chahta hai ji bus....

:(

kai baar padhne par apni lagi ye kavita....

iska matlab mere likhne se pehle hi aapne ye chura li?
hahahaha
:)
:P

Nywayas,
Diwali ki shubh kamnaaiyen.

Meenu Khare said...

aapka 1999 mera 2009 hua chahta hai ji bus....


इसके पीछे के विवरण जानने का मन कर रहा है दर्पण जी...

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