विश्व श्रमिक दिवस के अवसर पर हाइकु-गंगा समूह द्वारा दिनांक 1-05-2020 को आयोजित प्रथम हाइगा कार्यशाला ने जहाँ एक ओर लॉकडाउन की नीरसता को ऑनलाइन रचनात्मकता से भंग किया वहीं समूह सदस्यों की सक्रिय सहभागिता ने इस आयोजन में रंग भर दिये। साहित्य भूषण आदरणीया डॉ. मिथिलेश दीक्षित जी के नेतृत्व में यह रंग नयी ऊर्जा और नयी चेतना से हम सबको सराबोर कर गया।इस प्रकार की यह कार्यशाला अपने आप में अनूठी और पहली थी। यह कार्यशाला कई दृष्टिकोणों से उत्साहवर्धक रही।आयोजन यह सिद्ध कर गया कि समूह में गम्भीर चिन्तन और रचनात्मकता के अंडरकरेंट्स हैं जो अवसर मिलने पर मुखर होकर सामने आते हैं।पिछले दिनों समूह से जुड़ी अंजू निगम और सत्या जी का प्रथम हाइगा प्रयास भविष्य के प्रभावी हाइकु चिंतन का संकेत दे गया।अंजू जी के हाइकु में धूप की आरी और श्रमिकों के पैर के सह-संयोजन से मन में कचोट सी हुई वहीं सत्या जी द्वारा मज़दूर की सतत विवशता को लेकर रचा हाइकु “कैसा दिवस?” व्यवस्था पर गम्भीर प्रश्नचिन्ह खड़ा कर गया। इस तरह के आयोजनों से विषय विशेष की सुषुप्त रचनात्मकता जीवन्त हो उठती है। लम्बे समय से समूह से जुड़े रवीन्द्र प्रभात जी द्वारा हाल में पोस्ट की गयी हाइकु/हाइगा प्रस्तुतियाँ स्वागत योग्य हैं।”मज़दूर हूँ पर मजबूर नहीं” का उनका कथन मज़दूर स्वाभिमान को गहराई से रेखांकित करता है। निरन्तरता में अच्छा लिख रही सुरंगमा जी का सूर्य को सिर पर ढोने सम्बन्धी हाइकु सामाजिक विद्रूपताओं को आइना दिखाने की क्षमता रखता है।आनन्द शाक्य जी ने श्रम को सर्वोच्च सम्मान देते हुए श्रमिक को देवता का दर्जा दिया।बूँदों की लड़ी किसी के लिए आह्लादकरी है तो किसी के लिए भूखा सो जाने का सबब! निवेदिता जी की ठंडी सिगड़ी विचारों का तापमान बढ़ाती प्रतीत हुई! हल की मूठ को किसान की क़लम कह कर कल्पना दुबे जी ने उत्कृष्ट हाइकु रचा, वहीं फावड़े पर भारी शैलेश गुप्त जी की रोटी की धुन, मन में मार्मिक स्वर लहरियाँ बिखेरती है।पुष्पा जी ने श्रम से मरुभूमि को उर्वरा बनाने का शाश्वत मंत्र प्रभावी रूप से दोहराया तो सुकेश जी ने स्वेद बिंदुओं को गहना बना कर श्रम को सम्मान दिया।जलते चूल्हे में तपता बचपन बहुत मार्मिक हाइकु बन पड़ा है सुभाषिणी जी!कचरा बीनने वाला बचपन ख़ुद कचरा बन कर समाज को मुँह चिढ़ाने वाला वर्षा जी का हाइकु बहुत सुन्दर लगा। सरस जी ने पेट के साथ साँसों के बोझ को ख़ूबसूरती से रेखांकित किया।इंदिरा जी ने अति मनोरम दृश्यों से सुशोभित उत्कृष्ट हाइगा प्रस्तुत किए।सपनों की ख़ाली गुल्लक समाज और तमाम व्यवस्थाओं के खोखलेपन को ठोस रूप में रेखांकित कर गई वहीं दूर्वा को धरतीपुत्र कह कर लघुता के महत्व को दर्शाया गया ।समूह की संचालक साहित्य भूषण आ. मिथिलेश जी के हाइकु अक्सर मृदु भावों को समाहित करते हुए मन को छू लेते है परन्तु मज़दूरों के जीवन के कठोर यथार्थ को रेखांकित करते आज के आपके हाइकु मन को बींध गये ! ठेले पर बसा घर संसार जीवन की विषमताओं को कारुणिक रूप से प्रदर्शित करता है तो पीठ पर टंगा बच्चा,सृजन निर्माण की पूरी प्रक्रिया का सामाजिक शिल्प सामने रख कर स्त्री की जीवटता, उसकी कभी न हारने वाली अंत:शक्ति को रेखांकित करता है! चित्र और शब्दों का साम्य हाइगा को अभिव्यक्ति की श्रेष्ठ ऊँचाई प्रदान करता है!
संचालिका डॉक्टर दीक्षित द्वारा इस आयोजन में सभी की टिप्पणी को आवश्यक बना देना बहुत अच्छी शुरुआत है इससे एक दूसरे की रचनाओं को गम्भीरता से पढ़ने की प्रवृत्ति बढ़ेगी जिससे सबकी रचनात्मकता में सुधार आएगा। समूह की की आयोजक डॉ. मिथिलेश दीक्षित ने सभी को बधाई देते हुए कहा कि “हाइगा विषय और प्रस्तुति में बहुत
प्रभावपूर्ण रहेऔर यथार्थ का अंकन करने के कारण विविध रंग - रूपों में मर्म का स्पर्श करने में समर्थ रहे। जीवन के सभी क्षेत्रों में श्रमिक की भूमिका सर्वोपरि होती है। इसीलिएहम इनके कृतज्ञ हैं। इस कार्यक्रम
की प्रस्तुति का यह उपहार हम सब
संसार के सभी श्रमिक बन्धुओं को समर्पित करते हैं।”इस प्रकार लाक्डाउन में हाइकु गंगा समूह का पहला हाइगा सम्मेलन यादगार बन गया।
रिपोर्ट-मीनू खरे
(इस कार्यशाला में मैंने भी कुछ हाइगा प्रस्तुत किए जिसकी चर्चा फिर कभी!)