Tuesday, November 03, 2009

सब त्रिया-चरित्र है !




जीवन के रंगमंच पर
माँ,बहन,बेटी,पत्नी,
देवरानी,जिठानी,बहू,सास,नन्द
जैसे चरित्रों को
संजीदगी से निभाते-निभाते
एक दिन
आँख भर आई मेरी
इन सारे चरित्रों के बीच
अपने "स्व" के कहीं खो जाने पर.


मन की इस व्यथा पर
कुछ बोलना चाहा होठों ने
किंतु शब्द मौन हो गए
लेकिन आँखे वाचाल होकर बोल उठीं
आँसुओं की भाषा...


उसी दिन मेरे कानों ने सुना था
औरत को कोई समझ पाया है आज तक?
सब त्रिया-चरित्र है
ऐक्टिंग मार रही है
नाटकबाज़ कहीं की!

20 comments:

  1. सब त्रिया-चरित्र है
    ऐक्टिंग मार रही है
    नाटकबाज़ कहीं की!
    नारी की व्यथा को और उसके प्रति समाज के नज़रिये को रेखांकित करती आपकी लाजवाब रचना

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  2. मन की इस व्यथा पर
    कुछ बोलना चाहा होठों ने
    किंतु शब्द मौन हो गए
    लेकिन आँखे वाचाल होकर बोल उठीं
    आँसुओं की भाषा...


    di......... bahut hi maarmik chitran kiya hai aapne....

    bahut achchi lagi....

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  3. मन की इस व्यथा पर
    कुछ बोलना चाहा होठों ने
    किंतु शब्द मौन हो गए
    आपकी मान्यता पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है। मुद्दा बहुत सही उठाया है। रोचक और गंभीर भी। आपकी रचना पढ़ कुछ शेर मन में कौंध गए
    होठों को सी के देखिए, पछताइएगा आप,
    हंगामें जाग उठते हैं, अक्सर घुटन के बाद।

    जो भी है सूरते हालात कहो, चुप न रहो,
    रात अगर है तो उसे रात कहो, चुप न रहो।

    मजबूर हैं तो इसके ये मानी नहीं हुए,
    हमको हर जुल्म गवारा हो गया।

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  4. यह दुनिया ऐसा रंग मंच है जहाँ सभी नाटक करते है और कोई किसीको अपने से ज्यादा अच्छा अभिनेता नही समझता ।

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  5. "उसी दिन मेरे कानों ने सुना था
    औरत को कोई समझ पाया है आज तक?
    सब त्रिया-चरित्र है
    ऐक्टिंग मार रही है
    नाटकबाज़ कहीं की!"



    दीदी प्रणाम ,
    बढ़िया और सत्य लिखा आपने अक्सर यही होता है !

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  6. कनफेसन कबूल ! क्या सचमुच ?

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  7. कुंठाग्रस्तों की बात पर कान देने की जरुरत ही क्यूँ पड़ी इस महासृष्टि को....

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  8. नारी नारी है
    उसे समझने के लिये
    नारी के हृदय सा
    विशालता लिये हृदय हो
    अन्यथा
    जिसे खुद का बोध नहीं
    वह किसी और का मूल्यांकन
    कर पायेगा क्या ?

    सही उकेरा है आपने !
    आभार !

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  9. जीवन के रंगमंच पर
    माँ,बहन,बेटी,पत्नी,
    देवरानी,जिठानी,बहू,सास,नन्द
    जैसे चरित्रों को
    संजीदगी से निभाते-निभाते
    एक दिन
    आँख भर आई मेरी
    इन सारे चरित्रों के बीच
    अपने "स्व" के कहीं खो जाने पर.


    बहुत सुन्दर,
    अब तो धीरे -धीरे सभी होते इस समाज ने जहां सिर्फ एक बेटा और एक बेटी और कभी कभी सिर्फ एक ही बेटा घर में है तो इस समाज ने तो व्याहकर पति के घर आने वाली उस नै नवेली दुल्हन से यह अधिकार भी चीन लिया है की वह ननद, देवरानी, जेठानी इत्यादि का चरित्र निभा सके !

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  10. @अरविन्द जी आपकी टिप्पणी बहुत स्पष्ट नहीं है परंतु जितना समझ सकी उसके लिए कहना है कि यह कविता सबके लिए तो नही किंतु बहुत सारी औरतों के जीवन का सच है और उन सबकी स्वीकारोक्ति इसे माना जा सकता है.विस्तृत विवरण के लिए हेमंत कुमार जी की टिप्पणी पढ लेने का कष्ट निवेदित है.

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  11. उसी दिन मेरे कानों ने सुना था
    औरत को कोई समझ पाया है आज तक?
    सब त्रिया-चरित्र है
    ऐक्टिंग मार रही है
    नाटकबाज़ कहीं की!
    पुरुष मंडली में इस तरह की चर्चा आम है ....मगर ...एक्टिंग मारने वाले नारी चरित्र भी खूब झेले हैं ..यही रहती है हमेशा..मेरे दिल दिमाग की रस्साकशी ..

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  12. मन की इस व्यथा पर
    कुछ बोलना चाहा होठों ने
    किंतु शब्द मौन हो गए
    लेकिन आँखे वाचाल होकर बोल उठीं
    आँसुओं की भाषा...

    सच लिखा है ......... इतने अलग अलग पात्रों में जीती हुयी नारी का दर्द समझना आसान नहीं है ........

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  13. Bahut hi achchi rachna hain , dhanyvad

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  14. aapki kavita stree ke bahut sameep hai .triya charitra toh stree ka bahut bada upahass hai .

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  15. aapne samaj ki sachhai ko sabdon me dhala hai...par samaj me sirf aise hi log nahi hain....jo istri ko triya charirt me hi paribhasit karte hain...mere blog par aapka swagat hai..

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  16. औरत की भावनाओं का मर्मस्पर्शी चित्रण.

    कुछ बोलना चाहा होठों ने
    किंतु शब्द मौन हो गए
    शब्द मौन कब होते हैं मीनू जी? जब अर्थों के विकल्प शून्य हो जाए. पर नारी को अपनी अस्मिता के नए विकल्पों को खोजना ही होगा.अपना रास्ता स्वयँ बनाने से ही बन पाता है.नारी आगे बढे जमाना कदमों में जरूर आएगा एक दिन.

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  17. एक दिन
    आँख भर आई मेरी
    इन सारे चरित्रों के बीच
    अपने "स्व" के कहीं खो जाने पर.
    meenuji
    wah ...apne sva ke kho jane ka dard aaj sabhi bog rehe hai ..wakai umdaa ...

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  18. चलते-चलते ख़त्म हो जाएगा अंधेरों का सफर
    चलते-चलते मंज़िल आ ही जाएगी नज़र

    चलते रहने से ही मंज़िल और मुकाम है,
    चलते रहो क्योंकि चलना जीवन का नाम है।

    आपको स्व का एहसास हो,
    स्व सचमुच आपके पास हो।

    अमर आनंद

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  19. कड़वा सच मगर बहुत खूब. कवियत्री के हौसले को मेरा सलाम, बधाई और शुभकामनाएं.

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  20. बहुत खूब...बहुत सादगी से बहुत ही गहरी बात कह गयीं आप,,,ख्यालों की उड़ान को इतनी खूबसूरती से पकड़ना भी वही जान सकता है जिसने पूरी गहरायी तक डूब कर भी देखा हो.....एक और इतनी अच्छी रचना के लिए मुबारक......और हाँ एक बात और..जहाँ आप जैसे कलमकार हैं वहां नारी की यह व्यथा अधिक देर तक नहीं रहने वाली...अल्लाह करे जोर कलम और ज्यादा....

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